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कैसा ? वह तो जाना जाता है। कर्तृत्व के अहंकार एवं अपनत्व के ममकार से दूर रह कर जो स्व और पर को समग्र रूप से अप्रभावित होकर एक समय में परिपूर्ण जाने, वही भगवान हैं। तीर्थंकर भगवान वस्तु स्वरूप को जानते हैं, बताते हैं, बनाते नहीं।
वे तीर्थंकर थे। उन्होंने धर्मतीर्थ का प्रवर्तन किया। उन्होनें जो उपदेश दिया उसे प्राचार्य समन्तभद्र ने सर्वोदय तीर्थ कहा हैं :सर्वान्तवत् तद्गुणमुख्यकल्पम्।
सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम्।। सर्वापदामन्तकरं निरन्तम्।
सर्वोदय तीर्थमिदं तवैव।। हे भगवान महावीर! आपका सर्वोदय तीर्थ सर्व धर्मो को लिए हुए हैं, उसमें मुख्य और गौण की विवक्षा से कथन हैं, अतः कोई विरोध नहीं आता; किन्तु अन्य वादीयों के कथन निरपेक्ष होने से संपूर्णतः वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन करने में असमर्थ हैं। आपका शासन ( तत्त्वोपदेश) सर्व आपदाओं का अंत करने में और समस्त संसारी प्राणीयों को संसार-सागर से पार करने में समर्थ हैं, अतः सर्वोदय तीर्थ हैं।
जिसमें सब का उदय हो वही सर्वोदय हैं। तीर्थंकर महावीर ने जिस सर्वोदय तीर्थ का प्रणयन किया, उसके जिस धर्मतत्त्व को लोक के सामने रखा, उसमें किसी प्रकार की संकीर्णता और सीमा नहीं थी। प्रात्मधर्म सभी आत्माओं के लिए हैं। धर्म को मात्र मानव से जोड़ना भी एक प्रकार की संकीर्णता हैं। वह तो प्राणीमात्र का धर्म हैं। ‘मानवधर्म' शब्द भी पूर्ण उदारता का सूचक नहीं हैं। वह भी धर्म के क्षेत्र को मानव समाज तक ही सीमित करता हैं,जब कि धर्म का संबंध समस्त चेतन जगत से हैं, कयोंकि सभी प्राणी सुख और शान्ति से रहना चाहतें हैं।
तीर्थंकर भगवान महावीर ने प्रत्येक वस्तु की पूर्ण स्वतंत्र सत्ता प्रतिपादित १. युक्त्यनुशासन , श्लोक ६२
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