Book Title: Tattvagyan Pathmala 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 68
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates की हैं और यह भी स्पष्ट किया है कि प्रत्येक वस्तु स्वयं परिणमनशील हैं। उसके परिणमन में पर पदार्थ का कोई हस्तक्षेप नही हैं। यहाँ तक कि परम पिता परमेश्वर (भगवान) भी उसकी सत्ता का कर्ताहर्ता नहीं हैं। जन-जन की ही नहीं, अपितु कण-कण की स्वतंत्र सत्ता की उद्घोषणा तीर्थंकर महावीर की वाणी में हुईं । दूसरों के परिणमन या कार्य में हस्तक्षेप करने की भावना ही मिथ्या, निष्फल और दुःख का कारण हैं ; क्योंकि सब जीवों के दुःख-सुख, जीवन-मरण का कर्ता दूसरे को मानना अज्ञान हैं । सो ही कहा सर्व सदैव नियतं भवति स्वकीय। कर्मोदयान्मरणजीवितदुःखसौख्यम्।। अज्ञानमेतदिह यत्तु परः परस्य, कुर्यात्पुमान्मरणजीवितदुःखसौख्यम्।।' यदि एक प्राणी को दूसरे के दुःख-सुख और जीवन-मरण का कर्ता माना जाय तो फिर स्वयंकृत शुभाशुभ कर्म निष्फल साबित होंगे। क्योंकि प्रश्न यह है कि हम बुरे कर्म करें और कोई दूसरा व्यक्ति, चाहे वह ईश्वर ही क्यों न हो, क्या हमारा बुरा कर सकता हैं ? यदि हाँ, तो फिर अच्छे कार्य करना और बूरे कार्यो से डरना व्यर्थ हैं, क्योंकि उनके फल को भोगना तो आवश्यक हैं नहीं ? और यदि यह सही हैं कि हमें अपने अच्छे-बूरे कर्मो का फल भोगना ही पड़ेगा तो फिर हस्तक्षेप की कल्पना निरर्थक हैं। इसी बात को अमितगति प्राचार्य ने इसी प्रकार व्यक्त किया हैं : स्वयं कृतंः कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम्। परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं, स्वयं कृतः कर्म निरर्थकं तदा।। १. आचार्य अमृतचंद्र : समयसार कलश, १६८ ६६ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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