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पूर्व परंपरागत प्राप्त जैन साहित्य मे प्राचार्य धरसेन के शिष्य पुष्पदन्त और भूतबलि द्वारा रचित षट्खण्डागम सर्वाधिक प्राचीन रचना हैं। इसमें प्रथम खण्ड में जीव की अपेक्षा से और शेष खण्डो में जीवों और कर्मो के संबंध से अन्य अनेक विषयों का विवेचन हुआ हैं। इसी को लक्ष्य में रखकर नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती ने गोम्मटसार की रचना की और उसे जीवकांड और कर्मकांड दो भागों में विभाजित किया। गोम्मटसार में षट्खण्डागम का पूर्ण सार आ गया हैं।
गोम्मटसार ग्रंथ पर मुख्यः चार टीकाएँ उपलब्ध हैं। एक हैं - अभयचंद्राचार्य की संस्कृत टीका ‘मंदप्रबोधिका' जो जीवकाण्ड की गाथा ३८३ तक ही पाई जाती हैं। दूसरी केशववर्णी की संस्कृत मिश्रित कन्नड़ी टीका 'जीवतत्त्वप्रदीपिका' हैं जो संपूर्ण गोम्मटसार पर विस्तृत टीका हैं और जिसमें 'मंदप्रबोधिका' का पूरा अनुसरण किया गया हैं। तीसरी है – नेमिचंद्राचाय की संस्कृत टीका ‘जीवतत्त्वप्रदीपिका' जो पिछली दोनो टीकानों का पूरा-पूरा अनुसरण करती हुई संपूर्ण गोम्मटसार पर यथेष्ट विस्तार के साथ लिखी गई हैं और चौथी हैं पंडित टोडरमल की भाषा टीका 'सम्यग्ज्ञानचंद्रिका' जिसमें संस्कृत टीका के विषय को खूब स्पष्ट किया गया हैं। उन्हीं का अनुसरण कर हिन्दी, अंगेजी तथा मराठी के अनुवादो का निर्माण हुआ हैं।
गोम्मटसार ग्रन्थ जैन विद्यालयों का नियमित पाठ्यग्रन्थ हैं। इसके जीवकांड नामक महाधिकार के प्रथम अधिकार में गुणस्थानों की चर्चा विषद् रूप से की गई हैं। यह पाठ उसी को ध्यान में रखकर लिखा गया हैं। गुणस्थानों के संबंध में विस्तृत जानकारी के लिए गोम्मटसार जीवकाण्ड का अध्ययन किया जाना चाहिए।
१. ये नेमिचंद्राचार्य, सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचंद्राचार्य से भिन्न हैं।
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