________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
(निश्चय संयम दशा) निरन्तर रहती है और उसके अनुरूप २८ मूलगुण व उत्तरगुणों का और शील के सब भेदों का यथावत् पालन भी सहज होता हैं। वे २८ मूलगुण निम्न प्रकार हैं :- ५ महाव्रत, ५ समिति, ६ आवश्यक, ५ इन्द्रियसंयम, १ नग्नता, १ केशलुंचन, १ अस्नानता, १ भूमिशयन, १ प्रदंतधोवन, १ खड़े रह कर आहार लेना, १ एकभुक्ति।
स्त्रीकथा, भक्तकथा, राष्ट्रकथा और अवनिपाल कथा, ये चार विकथा, क्रोध, मान, माया और लोभ, ये चार कषाय; पांच इन्द्रियाँ; निद्रा और प्रणय ( स्नेह) ये १५ प्रमाद हैं। इनके प्रत्येक और संयोगी सब मिला कर ८० भेद होते हैं। यह प्रमाद संयम में मल उत्पन्न करता हुआ भी छठे गुणस्थान योग्य निश्चय संयम का घात नहीं करता।
छठे गुणस्थान में (यथोचित शुद्ध परिणति सहित) सविकल्पता, सातवें गुणस्थान में निर्विकल्पता होती हैं, तथा दोनों का काल अंतर्मुहूर्त ही होता हैं; अतः मुनिराज हजारों वर्ष तक भी मुनिदशा में रहे तो भी उनको अंतर्मुहूर्त में गुणस्थान का पलटन होता रहता हैं अर्थात् श्रेणी में आरोहण नहीं करने वाले प्रत्येक मुनिराज मुनिदशा में रहते हुए अंतर्मुहूर्त में सातवे गुणस्थान से छठे में आते हैं और फिर छठे से सातवें में चले जाते हैं, ऐसा ( सविकल्प-निर्विकल्प का पलटन) अनवरत् होता ही रहता हैं । यहाँ इतना विशेष जानना कि मुनिदशा शुरु होते ही हैं सर्वप्रथम सातवाँ गुणस्थान प्राता हैं , फिर छठा होता हैं। (७) अप्रमत्तसंयत
जे भावलिंगी मुनिराज पूवोक्त १५ प्रकार के प्रमाद रहित हैं, उन्हें अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती कहते हैं। इनके अनंतानुबंधी आदि १२ कषायों का प्रभाव होता ही हैं, साथ ही संज्वलन कषायों तथा नोकषायों की तीव्रता न होकर सप्तम गुणस्थान योग्य मंदता होती हैं, अतः इनके मल को उत्पन्न करने वाला प्रमाद नहीं होता और मूलगुण-उत्तरगुण आदि की सहज निरतिचार परिणति बनी रहती हैं; इसलिए इसकी अप्रमत्तसंयत संज्ञा सार्थक हैं। इस गुणस्थान में बुद्धिपूर्वक विकल्प नहीं रहते और निर्विकल्प आत्मा के
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com