Book Title: Tattvagyan Pathmala 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 56
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates (११) उपशान्तकषाय जिस गुणस्थान में मलिन जल में कतक फल के डालने पर स्वच्छ हुए जल के समान या शरद ऋतु में स्वच्छ हुए जल के समान जीवों की द्रव्यभावरूप कषाय उपशान्त रहती हैं, उनके उस गुणस्थान की उपशान्त कषाय संज्ञा हैं। इसका काल भी अंतर्मुहूर्त हैं और इसमें पूर्ण वीतरागता के साथ छद्मस्थपना पाया जाने से इसे उपशान्तकषाय वीतरागछद्मस्थ कहते हैं। पिछले गुणस्थानों में कषायों के तारतम्य से जैसा परिणाम भेद दृष्टिगोचर होता हैं, वीतराग भाव की प्राप्ति होने से वैसा परिणाम भेद इस सहित आगे के गुणस्थानों में दृष्टिगोचर नहीं होता। यहाँ चार घाति कर्मो में से मोहनीय कर्म का उपशम होता हैं, बाकी तीन कर्मो का क्षयोपशम रहता हैं। इस गुणस्थान का काल समाप्त होने पर अथवा आयु पूर्ण होने पर जीव का इस गुणस्थान से पतन होता हैं। (१२) क्षीणकषाय _जिन जीवों के भाव कषायों का सर्वथा क्षय हो जाने से स्फटिकमणि के निर्मल पात्र में रखे हुए स्वच्छ जल के समान पूर्ण निर्मल अर्थात् द्रव्य-भाव उभयरूप मोहकर्मो का सर्वथा अभाव होने से पूर्ण वीतरागता को प्राप्त एकरूप होते हैं, उनके उस गुणस्थान की क्षीणकषाय संज्ञा हैं। इसका भी काल अंतर्मुहुर्त हैं। इसमें पूर्ण वीतरागता के साथ छद्मस्थपना पाया जाने से इसे क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थ कहते हैं। इस गुणस्थान में स्थित यथाख्यात चारित्र के धारक मुनिराज को मोहनीय कर्म का तो अत्यंत क्षय होता हैं और शेष तीन घाति कर्मो का क्षयोपशम रहता हैं, अन्तर्मुहूर्त में वे उनका क्षय करके तेरहवाँ गुणस्थान प्राप्त करते हैं। (१३) सयोगकेवली जिन जिन जीवों का केवलज्ञानरूपी सूर्य की किरणों के समूह से अज्ञान अंधकार सर्वथा नष्ट हो चूका हैं और जिन्हें नौ केवल-लब्धियाँ (क्षायिक सम्यक्त्व, चारित्र, ज्ञान, दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य) प्रगट होने से परमात्मा संज्ञा प्राप्त हुई हैं; वे जीव इन्द्रिय और आलोक आदि की अपेक्षा रहित Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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