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असहाय ज्ञान-दर्शन युक्त होने से 'केवली ; योग से युक्त होने के कारण ' सयोग' और द्रव्य - भाव उभयरूप घाति कर्मों पर विजय प्राप्त करने के कारण 'जिन' कहलाते हैं; उनके इस गुणस्थान की संज्ञा सयोगकेवली जिन हैं । यही केवली भगवान अपनी दिव्यध्वनि से भव्य जीवों को मोक्षमार्ग का उपदेश देकर संसार में मोक्षमार्ग का प्रकाश करते हैं ।
इस गुणस्थान में योग का कंपन होने से एक समय मात्र की स्थिति का साता वेदनीय का प्रस्स्रव होता है, लेकिन कषाय का प्रभाव होने से बंध नहीं होता । (१४) प्रयोगकेवली जिन
इस गुणस्थान में स्थित अरहन्त भगवान मन-वचन-काय के योगों से रहित और केवलज्ञान सहित होने से इस गुणस्थान की संज्ञा प्रयोगकेवली जिन हैं। इस गुणस्थान का काल अ, ई, उ, ऋ, लृ इन पाँच ह्रस्व स्वरों के उच्चारण करने के बराबर हैं । इस गुणस्थान के अंतिम दो समय में प्रधाति कर्मो की सर्व कर्म प्रकृतियों का क्षय करके ये भगवान सिद्धपने को प्राप्त होते हैं।
सिद्ध परमेष्ठी
जो जीव पूर्वोक्त संसार की भूमिकास्वरूप चौदह गुणस्थानों को उल्लंघन कर द्रव्य-भाव उभयरूप ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के कर्मो से रहित हो गये हैं; निराकुल लक्षण आत्माधीन अनन्त सुख का निरंतर भोग करते हैं; द्रव्यकर्म भावकर्म और नोकर्म से रहित होने के कारण निरंजन हैं; सिद्ध पर्याय को छोड़ कर पुन: दूसरी पर्याय को प्राप्त नहीं होते हैं, इसलिए नित्य हैं; द्रव्य-भाव उभयरूप आठ कर्मों के नाश होने से सम्यक्त्व आदि आठ गुणों ( क्षायिक सम्यक्त्व अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अगुरुलघुत्व, अव्याबाधत्व) को प्राप्त हुए हैं; आत्मा संबंधी कोई कार्य करने के लिए शेष न रहने से कृतकृत्य हैं; और चारों दिशाओं, चारों विदिशाओं तथा नीचे जाने रूप स्वभाव के न होकर मात्र लोक के अग्रभाग तक ऊपर जाने रूप स्वभाव के होने से लोक के अग्रभाग में स्थित हैं; उन्हें सिद्ध कहते हैं ।
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