Book Title: Tattvagyan Pathmala 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 49
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates चतुर्दश गुणस्थान सब जीवों के पाँचों भावों में से यथासंभव किन्हीं के दो, किन्हीं के तीन, किन्हीं के चार और किन्हीं के पाँचो ही भाव होते हैं । ये हैं – (१) औपशमिक (२) क्षायिक (३) क्षायोपशमिक (४) औदयिक और (५) पारिणामिक। ये जीवों के निज भाव हैं। इनमें प्रारम्भ के चार भाव निश्चय नय से स्वयं जीवकृत होने पर भी व्यवहार नय से यथायोग्य कर्मो के उपशम, क्षय, क्षयोपशम और उदय को निमित्तकर होते हैं, इसलिए इनकी औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और प्रौदयिक ये संज्ञाएँ सार्थक हैं; तथा प्रत्येक जीव के अनादिनिधन, एकरूप, कर्मोपाधिनिरपेक्ष , सहज स्वभाव की 'परिणाम' संज्ञा हैं और ऐसा परिणाम ही पारिणामिक भाव कहलाता हैं। प्रकृत में 'गुण' शब्द द्वारा इन्हीं भावों का ग्रहण हुआ हैं। मात्र मोह और योग निमित्तक इन्हीं भावों के ( गुणों के) तारतम्य से जो चौदह 'स्थान' बनते हैं, उनको चौदह गुणस्थान कहते हैं, वे निम्न प्रकार हैं :___ (१) मिथ्यात्व (२) सासादन (३) मिश्र (४) अविरत सम्यक्त्व (५) देशविरत (६) प्रमत्त संयत (७) अप्रमत्त संयत (८) अपूर्वकरण (९) अनिवृत्तिकरण (१०) सूक्ष्मसाम्पराय (११) उपशान्तकषाय (१२) क्षीणकषाय (१३) सयोगकेवली जिन (१४) प्रयोगकेवली जिन।' (१) मिथ्यात्व मिथ्या पद का अर्थ वितथ, व्यलीक, विपरीत और असत्य हैं । जिन जीवों की प्रयोजनभूत जीवादि पदार्थ विषयक श्रद्धा असत्य होती हैं , उनके समुच्चय रूप उस भाव को मिथ्यात्व गुणस्थान कहते हैं। जैसे पित्तज्वर से पीड़ित जीव को मधुर रस नहीं रूचता, वैसे ही मिथ्यादृष्टि जीव को सम्यक् रत्नत्रयरूप आत्मधर्म १. मिच्छो सासन मिस्सो, अविरद सम्मोय देशविरदोय । विरदा पमत्त ईदरो, अपुव्व अणियट्ठि सुहमो य ।।९।। उवसंत खीणमोहो, सजोग केवलि जिणो अयोगीय । चउदस जीव समासा, कमेण सिद्धा य णादव्वा ।। १०।। -गोम्मटसार जीवकांड। ४७ Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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