________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
पाठ ५.
आत्मानुभूति
और तत्त्वविचार
‘सुख क्या हैं ? ' और ' मैं कोन हूँ ?' इन प्रश्नों का सही उत्तर प्राप्त करने का एक मात्र उपाय प्रात्मानुभूति हैं, तथा आत्मानुभूति प्राप्त करने का प्रारंभिक उपाय तत्त्वविचार हैं। पर प्रात्मानुभूति अपनी प्रारम्भिक भूमिका तत्त्वविचार का भी अभाव करती हुई उदित होती हैं; क्योंकि तत्त्वविचार विकल्पात्मक हैं और आत्मा निर्विकल्प स्वसंवेद्य तत्त्व हैं। निर्विकल्पक तत्त्व की अनुभूति विकल्पों द्वारा नहीं की जा सकती हैं। उक्त तथ्य ‘सुख क्या हैं ?" और मैं कौन हूँ ? २ नामक निबंधो में स्पष्ट किया जा चुका हैं। यहाँ तो विचारणीय प्रश्न यह हैं कि आत्मानुभूति की दशा क्या हैं और तत्त्वविचार किसे कहना ?
अन्तरोन्मुखी वृत्ति द्वारा आत्मसाक्षात्कार की स्थिति का नाम ही आत्मानुभूति हैं। वर्तमान प्रगट ज्ञान को पर-लक्ष्य से हटा कर स्वद्रव्य (त्रिकाली ध्रुव आत्मतत्त्व) में लगा देना ही आत्मसाक्षात्कार की स्थिति हैं। वह ज्ञानतत्त्व से निर्मित होने से, ज्ञानतत्त्व की ग्राहक होने से और सम्यग्ज्ञान-परिणति की उत्पादक होने से ज्ञानमय हैं। अतः वह आत्मानुभूति ज्ञायक, ज्ञेय, ज्ञान और ज्ञप्ति रूप होकर भी इनके भेद से रहित अभेद और प्रखण्ड हैं। तात्पर्य यह हैं कि जानने वाला भी स्वयं प्रात्मा हैं और जानने में आने वाला भी स्वयं आत्मा ही हैं तथा ज्ञान-परिणति भी आत्मामय हो रही हैं ।
१. तत्त्वज्ञान पाठमाला भाग १, पाठ ५ २. वीतराग-विज्ञान पाठमाला भाग ३, पाठ ५
३२
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com