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प्रवचनकार
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यह प्रवचनसार नामक महाशास्त्र हैं। इसे प्राचार्य कुन्दकुन्ददेव ने आज से करीब दो हजार वर्ष पूर्व बनाया था। जैसा महान यह ग्रन्थराज हैं। वैसी ही तत्त्वदीपिका नामक महान टीका संस्कृत भाषा में प्राचार्य अमृतचंद्र ने इस पर लिखी हैं। इसके तीन महा अधिकार हैं :
(१)
ज्ञानतत्त्व प्रज्ञापन
(२) ज्ञेयतत्त्व प्रज्ञापन
षट् कारक
एस सुरासुरमणुसिंदवंदिदं धोदघाइकम्ममलं । पणमामि वड्ढमाणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं ।।१।।
(३) चरणानुयोगसूचक चूलिका
यहाँ इसके ज्ञानतत्त्व प्रज्ञापन अधिकार की गाथा १६वीं चलती हैं। इसमें यह बताया गया है कि शुद्धोपयोग से होने वाली शुद्धात्मा की प्राप्ति अन्य कारकों से निरपेक्ष होने से प्रत्यन्त स्वाधीन हैं । लेश मात्र भी पराधीन नहीं हैं । तात्पर्य यह हैं कि अतीन्द्रियज्ञान और अतीन्द्रियनानन्द की प्राप्ति के लिए रंचमात्र भी पर के सहयोग की आवश्यकता नहीं है । गाथा इस प्रकार हैं :
समझाइये।
तह सो लद्धसहावो सव्वण्हू सव्वलोगपदिमहिदो । भूदो सयमेवादा हवदि सयंभुत्ति णिद्दिट्ठो ।। १६।।
स्वभाव को प्राप्त आत्मा सर्वज्ञ और सर्वलोकपतिपूजित स्वयमेव हुआ होने स्वयंभू हैं ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है ।
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आचार्य यहाँ यह कहना चाहते हैं कि निश्चय से पर के साथ आत्मा का कारकता का कोई सम्बन्ध नहीं हैं। शुद्धात्मस्वभाव की प्राप्ति के लिए यह जीव बाह्य सामग्री (पर पदार्थों के सहयोग ) की आकांक्षा से व्यर्थ ही दुखी हो रहा हैं। जिज्ञासु -
कारकता का सम्बन्ध क्या वस्तु
? कारक किसे कहते हैं ? कृपया यह
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