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विद्यमान तीर्थंकर भगवान श्री सीमंधरनाथ के साक्षात् दर्शन किए थे। विक्रम संवत् ९९० में हुए देवसेनाचार्य ने अपने 'दर्शनसार' नामक ग्रंथ में तत्सम्बन्धी उल्लेख इस प्रकार किया हैं :
जइ पउमणंदिणाहो, सीमंधरसामिदिव्वणाणेण।
ण विबोहइ तो समणा कहं सुमग्गं पयाणंति।। श्री सीमंधर स्वामी से प्राप्त हुए दिव्यज्ञान द्वारा श्री पद्मनंदिनाथ (श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव) ने बोध न दिया होता तो मुनिजन सच्चे मार्ग को कैसे जानते ?
इनका वास्तविक नाम पद्मनंदि हैं। कोण्डकुण्डपुर के वासी होने से इन्हें कुन्दकुन्दाचार्य कहा जाने लगा।
कुन्दकुन्दाचार्यदेव के निम्नलिखित ग्रन्थ उपलब्ध हैं - समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार, अष्टपाहुड, द्वादशानुप्रेक्षा और दशभक्ति। रयणसार और मूलाचार भी उनके ही गन्थ कहे जाते हैं। कहते हैं उन्होंने चौरासी पाहुड़ लिखे थे। यह भी कहा जाता है कि इन्होंने 'षट्खंडागम' के प्रथम तीन खण्डों पर 'परिकर्म' नामक टीका लिखी थी, जो उपलब्ध नहीं हैं।
समयसार जैन अध्यात्म का प्रतिष्ठापक अद्वितीय महान शास्त्र हैं। प्रवचनसार और पंचास्तिकाय में जैन सिद्धांतो का विशद विवेचन हैं। उक्त तीनों नाटकत्रयी, प्राभूतत्रयी और कुन्दकुन्दत्रयी भी कहा जाता हैं। उक्त तीनों ग्रन्थो पर आचार्य अमृतचंद्र ने संस्कृत भाषा में गंभीर टीकाएँ लिखी हैं। इन पर प्राचार्य जयसेन की संस्कृत टीकाएँ भी उपलब्ध हैं।
करीब चालीस वर्ष से प्राचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों को आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी ने जन-जन की वस्तु बना दिया हैं। उन्होंने उन पर प्रवचन किए, सस्ते सुलभ प्रकाशन कराए तथा सोनगढ़ ( सौराष्ट्र) में परमागम मंदिर का निर्माण कराके उसमें संगमरमर के पाटियों पर समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय और नियमसार संस्कृत टीका सहित तथा अष्टपाहुड उत्कीर्ण करा कर उन्हें भौतिक दृष्टि से भी अमर कर दिया हैं। उक्त परमागम मंदिर एक दर्शनीय तीर्थ बन गया हैं।
प्रस्तुत पाठ कुन्दकुन्दाचार्य के प्रवचनसार व पंचास्तिकाय एवं उनकी टीकाओं के आधार पर लिखा गया हैं। जैन अध्यात्म और सिद्धांत का मर्म जानने के लिए पाठकों को कुन्दकुन्द के ग्रन्थो का गंभीर अध्ययन अवश्य करना चाहिए।
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