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बहिर्लक्ष्यीं ज्ञान की हीनाधिकता से कोई अन्तर नहीं पड़ता, पर एक (प्रात्म) निष्ठता अति आवश्यक हैं।
यह आत्मा अपनी भूल से पर्याय में चाहे जितना उन्मार्गी बने, पर आत्मस्वभाव उसे कभी भी छोड़ नहीं देता; किन्तु जब तक यह आत्मा अपनी दृष्टि को समस्त पर पदार्थो से हटा कर आत्मनिष्ठ नहीं हो जाता तब तक आत्मस्वभाव की सच्ची अनुभूति भी प्राप्त नहीं हो सकती।
आत्मानुभूति प्राप्त करने के लिए बाह्य साधनों की रंचमात्र भी अपेक्षा नहीं हैं। जैसे लोक में अपनी वस्तु के उपयोग के लिए पैसा खर्च नहीं करना पड़ता हैं; उसी प्रकार आत्मानुभूति के लिए बाह्य साधनों की आवश्यकता नही हैं। क्योंकि स्वयं को, स्वयं की, स्वयं के द्वारा ही तो अनुभूति करना हैं। आखिर उसमें पर की अपेक्षा क्यों हो? आत्मानुभूति में पर के सहयोग का विकल्प बाधक ही हैं, साधक नहीं।
आत्मानुभूति के काल में पर संबंधी विकल्पमात्र प्रात्मानुभूति की एकरसता को छिन्न भिन्न किए बिना नहीं रहता है। अतः यह निश्चित हैं कि जो साधक अपनी साधना में पर के सहयोग की आकांक्षा से व्यग्र रहता हैं, उसके पल्ले मात्र व्यग्रता ही पड़ती हैं; उसे साध्य की सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती। अत: प्रात्मानुभव के अभिलाषी मुमुक्षुत्रों को पर के सहयोग की कल्पना में प्राकुलित नहीं रहना चाहिए।
शुभाशुभ विकल्पों के टुटने की प्रक्रिया और क्रम क्या हैं ? तथा परनिरपेक्ष आत्मानुभूति के मार्ग के पथिक की अंतरंग व बहिरंग दशा कैसी होती हैं ? ये अपने आप में विस्तृत विषय हैं। इन पर पृथक् से विवेचन अपेक्षित हैं। प्रश्न -
१. आत्मानुभूति किसे कहते हैं ? स्पष्ट कीजिए। २. तत्त्वविचार किसे कहते हैं ? समझाइये। ३. “आत्मानुभूति और तत्त्वविचार” इस विषय पर एक निबंध लिखिए।
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