Book Title: Tattvagyan Pathmala 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 32
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates “यदि कर्म स्वयं कर्ता होकर उद्यम से जीव के स्वभाव का घात करे, बाह्य सामग्री को मिलावे तब तो कर्म के चेतनपना भी चाहिए और बलवानपना भी चाहिए; सो तो है नहीं, सहज ही निमित्त-नैमित्तिक संबंध हैं । जब उन कर्मो का उदय काल होता हो; उस काल में स्वयं ही आत्मा स्वभावरूप परिणमन नहीं करता, विभावरूप परिणमन करता है तथा जो अन्य द्रव्य हैं वे वैसे ही संबंधरूप होकर परिणमन करते हैं..... जिस प्रकार सूर्य के उदय के काल में चकवा-चकवियों का संयोग होता हैं, वहाँ रात्रि में किसी ने द्वेषबुद्धि से बलजबरी करके अलग नहीं किये हैं, दिन में किसी ने करुणाबुद्धि से लाकर मिलाये नहीं हैं; सूर्योदय को निमित्त पाकर स्वयं ही मिलते हैं, ऐसा ही निमित्त-नैमित्तिकभाव बन रहा हैं। उस ही प्रकार कर्म का भी निमित्तनैमित्तिक भाव जानना।" जिज्ञासु - निमित्त-उपादान के झगड़े में हम पड़ें ही क्यों ? इसे न जानें तो क्या हानि हैं और जानने में क्या लाभ हैं ? प्रवचनकार - निमित्त-उपादान का सहीं स्वरूप समझना झगड़ना नहीं हैं। एक को दूसरे का कर्ता मानना झगड़ा हैं। इसी झगड़े के कारण जीव दुःखी हैं। निमित्त-उपादान का सहीं स्वरूप समझने ने से झगड़ा समाप्त हो जायगा। उपादान-निमित्त का सही ज्ञान न होने से व्यक्ति अपने द्वारा कृत कार्यो (अपराधों) का कर्तृत्व निमित्त पर थोप कर स्वयं निर्दोष बना रहना चाहता हैं। पर जैसे चोर स्वयंकृत चोरी का आरोप चांदनी रात के नाम पर मढ़ कर दंड़-मुक्त नहीं हो सकता; उसी प्रकार आत्मा भी अपने द्वारा कृत मोह-रागद्वेष भावों का कर्तृत्व कर्मो पर थोप कर दुःख मुक्त नहीं हो सकता हैं। उक्त स्थिति में स्वदोष दर्शन और आत्मनिरीक्षण की प्रवृत्ति की ओर दृष्टि तक नहीं जाती हैं। इसकी यथार्थ समझ से पर-कर्तृत्व का अभिमान दूर हो जाता हैं। पराश्रय के भाव के कारण उत्पन्न दीनता-हीनता का प्रभाव हो जाता हैं। प्रत्येक द्रव्य १. वहीं, २५-२६ ३० Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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