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पुत्रादिक की प्राप्ति के लिए अथवा रोग कष्टादिक को दूर करने के लिए स्तुति पूजनादि कार्य करना निःकांक्षित अंग का अभाव होने से एवं निदान नामक आर्तध्यान होने से पापबंध का कारण हैं; किन्तु मोहित होकर बहुत पाप बंध का कारण कुदेवादिक का सेवन तो नहीं किया, अतः उसकी प्रशंसा कर दी हैं। ऐसा छल कर औरों को लौकिक कार्यो के लिए धर्म साधन करना युक्त नहीं हैं।
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दीवान रतनचंद - करणानुयोग के व्याख्यान का विधान क्या हैं ? पं. टोडरमल - करणानुयोग में केवलज्ञानगम्य वस्तु का व्याख्यान हैं। केवलज्ञान में तो सर्व लोकालोक आया हैं, परन्तु इसमें जीव को कार्यकारी छद्मस्थ के ज्ञान में आ सके ऐसा निरूपण होता हैं। जैसे जीव के भावों की अपेक्षा गुणस्थान कहे हैं । सो भाव तो अनंत हैं, उन्हें तो वाणी से कहा नहीं जा सकता, अतः बहुत भावों की एक जाति करके चौदह गुणस्थान कहे हैं।
तथा करणानुयोग में भी कहीं उपदेश की मुख्यता सहित व्याख्यान होता हैं, उसे सर्वथा उसी प्रकार नहीं मानना । जैसे छुड़ाने के अभिप्राय से हिंसादिक के उपाय को कुमतिज्ञान कहा । वास्तव में तो मिथ्यादृष्टि से सभी ज्ञान कुज्ञान हैं और सम्यग्दृष्टि के सभी ज्ञान सुज्ञान हैं।
दीवान रतनचंद - तो चरणानुयोग में किस प्रकार का कथन होता हैं ?
पं. टोडरमल - चरणानुयोग में जिस प्रकार जीवों के अपनी बुद्धिगोचर धर्म का आचरण हो वैसा उपदेश दिया जाता हैं। इसमें व्यवहारनय की मुख्यता से कथन किया जाता हैं, क्योंकि निश्चय धर्म में तो कुछ ग्रहण त्याग का विकल्प है ही नहीं। अतः इसमें दो प्रकार से उपदेश देते हैं, एक तो मात्र व्यवहार का और एक निश्चय सहित व्यवहार का । व्यवहार उपदेश में तो बाह्य क्रियाओं की ही प्रधानता हैं, परंतु निश्चय सहित व्यवहार के उपदेश में परिणामों की ही प्रधानता हैं।
दीवान रतनचंद - अकेले व्यवहार का उपदेश किसके लिए है, और निश्चय सहित व्यवहार का किसके लिए ?
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