Book Title: Tattvagyan Pathmala 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 29
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates शंकाकार - उपादान यदि 'द्रव्य' या 'गुण' है तो वह सदा काल विद्यमान रहता हैं, अतः विवक्षित कार्य सदा होता रहना चाहिए। प्रवचनकार - उपादान दो तरह का होता हैं - (१) त्रिकाली उपादान (२) क्षणिक उपादान। जो द्रव्य या गुण स्वयं कार्यरूप परिणमित हो उसे त्रिकाली उपादानकारण कहते हैं। क्षणिक उपादानकारण को दो तरह से स्पष्ट किया जाता हैं : १. द्रव्य और गुणों में अनादि-अनन्त पर्यायों का प्रवाहक्रम चलता रहता हैं। उस अनादि-अनन्त प्रवाहक्रम में अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादानकारण हैं और अनन्तर उत्तर क्षणवर्ती पर्याय कार्य हैं। २. उस समय की पर्याय की उस रूप होने की योग्यता क्षणिक उपादानकारण हैं और वह पर्याय कार्य हैं। क्षणिक उपादानकारण को समर्थ उपादानकारण भी कहते हैं। त्रिकाली उपादानकारण तो सदा विद्यमान रहता हैं, यदि उसे ही पूर्ण समर्थकारण मान लिया जाय तो विवक्षित कार्योत्पति का सदा प्रसंग आयगा। अतः अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय एवं उस समय उस पर्याय के उत्पन्न होने की स्वयं की योग्यता ही समर्थ उपादानकारण हैं, जिनके बिना कार्य की उत्पत्ति नहीं होती हैं और जिनके होने पर नियम से कार्य की उत्पत्ति होती हैं । निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता हैं कि अनन्तर पूर्व पर्याय विशिष्ट द्रव्य उपादान हैं और अनन्तर उत्तर पर्याय विशिष्ट द्रव्य उपादेय हैं । अनुकूल बाह्य पदार्थ निमित्त हैं और विवक्षित कार्य नैमित्तिक हैं । शंकाकार - निमित्त भी दो प्रकार के होते हैं ! उदासीन और प्रेरक। २७ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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