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जिसका स्वाद कटुक होता हैं और पुण्य के उदय से सुख होता हैं, जिसका स्वाद मधुर हैं; इस प्रकार दोनों में रस भेद पाया जाता हैं। पाप परिणाम स्वयं संकलेशरूप हैं और पुण्यभाव विशुद्धरूप हैं, अतः दोनों में स्वभाव भेद भी विद्यमान हैं। पाप से नरकादि कुगतियों में जाना पड़ता हैं और पुण्य से देवादि सुगति की प्राप्ति होती हैं। इस प्रकार दोनों में फलभेद भी प्रत्यक्ष दिखाई देता है। फिर आप दोनों को समान कैसे कहते हैं ? गुरु - पाप बंध पुन्न बंध दुहूं मैं मुकति नाहि,
___ कटुक मधुर स्वाद पुग्गल कौ पेखिए। संकलेस विसुद्ध सहज दोऊ कर्मचाल,
कुगति सुगति जगजाल मै विसेखिए।। कारनादि भेद तोहि सुझत मिथ्यात्व माहि,
असौ द्वैत भाव ग्यान दृष्टि में न लेखिए। दोऊ महा अंधकूप दोऊ कर्मबंधरूप,
दुहूं को विनास मोख मारग मैं देखिए।। ६।। इसके उत्तर में गुरु कहते हैं कि पापबंध और पुण्यबंध दोनों ही मुक्ति के मार्ग में बाधक हैं, अतः दोनों समान ही हैं। कटुक और मधुर स्वाद भी पुद्गलजन्य हैं, तथा संकलेश और विशुद्ध भाव दोनों ही विभाव भाव हैं; अतः ये भी समान ही हैं। कुगति और सुगति दोनों चतुर्गतिरूप संसार में ही हैं, अतः फलभेद भी नहीं हैं। पुण्य-पाप में कारण, रस, स्वभाव और फल भेद वस्तुतः हैं नहीं; मिथ्यात्व के कारण अज्ञानी को मात्र दिखाई देते हैं, ज्ञानी को ऐसे भेद दृष्टिगत नहीं होते हैं। पुण्य और पाप दोनों ही अंधकूप हैं, दोनों ही कर्मबंधरूप हैं और मोक्षमार्ग में दोनों का ही प्रभाव देखा जाता हैं । मोक्षमार्ग में तो एक शुद्धोपयोग ही उपादेय हैं :सील तप संजम विरति दान पूजादिक,
अथवा असंजम कषाय विषैभोग है। कोऊ सुभरूप कोऊ असुभ स्वरूप मूल ,
वस्तुकै विचारत दुविध कर्मरोग है।।
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