Book Title: Tattvagyan Pathmala 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 25
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates स्थिरता नहीं आती हैं तब तक शुद्धात्मा का अनुभव नहीं होता हैं। अतः शुभाशुभ दोनों ही क्रियाएँ मोक्षमार्ग को काटने में कैंची के समान हैं । दोनों ही बंध को करने वाली हैं। दोनों में कोई भी अच्छी नहीं हैं। मैनें दोनो का निषेध मोक्षमार्ग में बाधक जान कर ही किया हैं। इस प्रकार पंडित बनारसीदासजी ने आगमानुकूल अपना दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से व्यक्त किया हैं। इसके संदर्भ में प्राचार्यकल्प पंडित टोडरमलजी लिखते हैं : “ तथा प्रास्त्रवतत्त्व में जो हिंसादिरूप पापास्त्रव हैं उन्हें हेय जानता हैं; अहिंसादिरूप पुण्यास्त्रव हैं उन्हें उपादेय मानता हैं। परंतु यह तो दोनों ही कर्मबंध के कारण हैं, इनमें उपादेयपना मानना वही मिथ्यादृष्टि हैं।... इस प्रकार अहिंसावत् सत्यादिक तो पुण्य-बंध के कारण हैं और हिंसावत् असत्यादिक पापबंध के कारण हैं; ये सर्व मिथ्याध्यवसाय हैं, वे सब त्याज्य हैं। इसलिए हिंसादिवत् अहिंसादिक को भी बंध का कारण जानकर हेय ही मानना.... जहाँ वीतराग होकर दृष्टा-ज्ञातारूप प्रवर्ते वहाँ निर्बध हैं सो उपादेय हैं। सो ऐसी दशा न हो तब तक प्रशस्त रागरूप प्रवर्तन करो, परन्तु श्रद्धान तो ऐसा रखो कि -यह भी बंध का कारण हैं, हेय हैं; श्रद्धान में इसे मोक्षमार्ग जाने तो मिथ्यादृष्टि ही होता हैं।" इस प्रकार हम देखते हैं कि यद्यपि लौकिक दृष्टि से पाप की अपेक्षा पुण्य अच्छा हैं व इसी तथ्य को लक्ष्य में रखकर शास्त्रों में उसे व्यवहार से धर्म भी कहा गया हैं, तथापि मुक्ति के मार्ग में उसका स्थान प्रभावात्मक ही हैं। पुण्य भला मानने में मूल कारण पुण्य के फलस्वरूप प्राप्त होने वाली भोग-सामग्री में सुखबुद्धि हैं। जब तक भोगों को सुखरूप माना जाता रहेगा तब तक पुण्य में उपादेयबुद्धि नही जा सकती। ज्ञानानंद स्वभावी आत्मा का स्पर्श हुए बिना भोगों में से सुखबुद्धि नहीं जा सकती हैं। ज्ञानानंद स्वभावी आत्मा का अनुभव ही शुद्ध भाव हैं जो कि शुभाशुभ (पुण्य-पाप) भाव के प्रभावरूप १. मोक्षमार्ग प्रकाशक , श्री दि. जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़, २२६ २३ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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