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इसका उत्तर देते हुए गुरु कहते हैं कि हे भाई! ऐसा नहीं है। क्या मुक्तिमार्ग के पथिक जीवो का अवलंबन पुण्य-पाप रूप हैं ? अरे, उनका अवलंबन तो उनका ज्ञानानन्द स्वभावी प्रात्मा हैं, जो सदा विद्यमान हैं । कर्मो का अभाव तो आत्मानुभव एवं उसके अभ्यास से ही होता हैं। अतः उनके निरावलंबन होने का कोई प्रश्न ही नहीं हैं। मोह - राग-द्वेष रहित आत्मा में समाधि लगाना ही मुक्ति का कारण एवं मोक्ष का स्वरूप हैं, व्रतादि के विकल्प और जड़ की क्रिया तो पुद्गल की परछाई हैं । कहा भी हैं :
करम सुभासुभ दोई, पद्गलपिंड विभाव मल ।
इन सौं मुकति न होइ, नहिं केवल पद पाइए।। ११।।
शुभ और अशुभ ये दोनों कर्म मल हैं, पुद्गल पिंड हैं और प्रात्मिक विभाव हैं। इनसे केवलज्ञान एवं मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है।
शिष्य -
कोऊ शिष्य कहै स्वामी ! प्रसुभक्रिया असुद्ध, सुभक्रिया सुद्ध तुम ग्रैसी कयौँ न वरनी। गुरु कहै जबलौं क्रिया के परिनाम रहें,
तबलौं चपल उपयोग जोग धरनी।। थिरता न प्रावै तोलौं सुद्ध अनुभौ न होई,
यातैं दोऊ क्रिया मोख - पंथ की कतरनी। बंधकी करैया दोऊ दुहू मैं न भली कोऊ,
बाधक विचारि मैं निसिद्ध कीनी करनी ।। १२ ।। इतना सुनने पर कोई समझौतावादी शिष्य सलाह देता हुआ कहता है कि हे गुरुदेव ! आप शुभक्रिया शुद्ध और प्रशुभक्रिया अशुद्ध हैं ऐसा क्यों नहीं कहते
हैं ?
गुरु -
उसको समझाते हुए गुरुदेव कहते हैं कि हे भाई! जब तक शुभाशुभ क्रिया के परिणाम रहते हैं तब तक योग ( मन, वचन, काय ) और उपयोग ( ज्ञान - दर्शन ) में चंचलता बनी रहती हैं । जब तक योग और उपयोग में
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