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समय में अन्य भी अनेक जैनेतर दर्शन विद्यमान थे जिसमें आत्मा आदि की बातें की नाती थी तथा उनकी सिद्धि के लिये और दूसरे के मतों के खंडनार्थ हेतु तर्क का सहारा लिया जाता था किन्तु हेतु और तर्क से जनहृदय में उन सिद्धान्तों के प्रति श्रद्धा जमाने के लिये प्रयास किया गया हो ऐसा कम देखने में आ रहा था ।
भगवान महावोर के बाद जैनशासन की धुरा को वहन करने वाले अनेक प्रभावक आचार्य हुए जिन्होंने हेतुवाद के आधार पर अहिंसादि निर्दोष सिद्धान्तों को जनसमाज में प्रतिष्ठित करने के लिये पर्याप्त श्रम लिया था । वैदिक दर्शनों में न्यायदर्शन के प्रस्थापक न्यायसूत्र प्रणेता गौतम ऋषि भी ऐसे हुए जिन्होंने हेतुवाद के बल से आत्मा आदि अतीन्द्रिय पदार्थों के बारे में अपनी वैदिक मान्यताओं को जनहृदय में प्रतिष्ठित करना शुरु किया । साथ साथ अन्य वैदिक दर्शनों में भी हेतुवाद का आश्रय लेकर अपनी मान्यताओं का प्रतिपादन करने वाले तरह तरह के ग्रन्थों की रचना शुरु हो गई । अनेक ग्राम नगर में विचरने वाले जैनाचार्यों से यह हकीकत गुप्त नहीं थी कि यदि इन दर्शनों की वाग्जालों में जनसमाज फँस जायगा तो अहिंसा - सत्य के सुनहरे सिद्धान्तों के नाम पर लोग हिंसापूर्ण यज्ञ यागों में निर्दोष पशुओं की बलि करने से अछुत न रहेगा. और धर्म के नाम अधर्म के प्रचार में कुछ कमी न रहेगी । इसलिये परम्परया मनुष्यों की कुवासनाओं को पुष्ट करने वाले ऐसे सिद्धान्तों के प्रचार की भयंकरता को समझने वाले जैनाचायों ने उनके प्रतिविधान के लिये स्वदर्शन के अभ्यास के साथ परदर्शन के प्रन्थों को भी जैन श्रमणवर्ग के अभ्यास में स्थान दिया । यद्यपि दृष्टिवाद (१२ वाँ अंगशास्त्र) में मिथ्यादर्शनवादोओं के मतों का उत्थापन विस्तारपूर्वक किया था फिर भी दृष्टिवाद महाकाय शास्त्र होने के कारण तथा मुनिवर्ग में स्मृतिहास के कारण उसका अधिकांश विच्छेद हो गया था इसलिये परदर्शनों के अभ्यास के लिये उनके ग्रन्थों के अभ्यास के सिवा और कोई मार्ग रहा न था । इस तरह के अभ्यास का यह नतीजा था कि जैन परम्परा में अनेक ऐसे विद्वान हुए जिनके रचे गये ग्रन्थों में हेतुवाद के बल पर अकाट्य तर्क और हृदयङ्गम दृष्टान्तों की सहाय से जैनेतर दार्शनिकों की मान्यताओं की अपूर्णता या असत्यता दर्शाई गई । साथ साथ अध्यात्म से अपने उत्कर्ष की साधना के सिद्धान्तों का आश्रय लेना चाहिये यह भी सयुक्तिक बताया गया ।
लिये कैसे पूर्ण और सत्य
जो आजकल के आधुनिक विद्वान् यह शोर मचा रहे हैं कि - " प्राचीन काल में परदर्शनों की मान्यताओं को धिक्कार या हीनता की दृष्टि से देखे जाने के कारण दार्शनिक लोगों ने अपने ग्रन्थों में इतर दर्शनों की मान्यताओं का खंडन मंडन करने में व्यर्थ ही समय बीता दिया " - यह केवल अपनी मतिमन्दता के प्रदर्शन के सिवा और कुछ नहीं है ।