Book Title: Syadvad Rahasya
Author(s): Yashovijay Mahopadhyay
Publisher: Bharatiya Prachyatattv Prakashan Samiti

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Page 11
________________ श्री उपाध्यायजी के ग्रन्थों को पढ कर चकित हो जाते हैं और उनकी प्रतिभा के आगे मस्तक झुका देते हैं। __जिन ग्रन्थों की श्री यशोविजय महाराज ने रचना को उनमें रहस्यपद से अङ्कित १०८ ग्रन्थ उपाध्यायजी ने बनाया हो ऐसा अनुमान करने के लिये एक महत्त्व का उल्लेख उनके 'भाषारहस्य' नामक ग्रन्थ में देखने में आता हैं वह इस प्रकार है-"रहस्यपदाङ्किततया चिकीर्षिताऽष्टोत्तरशतग्रन्थान्तर्गतप्रमारहस्य-नयरहस्य-स्याद्वादरहस्यादिसजातीयं प्रकरणमिदमारभ्यते" । इस प्रकरण में आगे जाकर 'वादरहस्य' ग्रन्थ का भी उल्लेख मिलता है वह इस प्रकार है 'तत्त्वमत्रत्यं मत्कृतवादरहस्यादवसेयम् (भा. र. पृष्ठ १५/२)' । उपदेशरहस्य नामक एक ग्रन्थ भी उपलब्ध है। रहस्यपदाङ्कित सभी ग्रंथ तो आज उपलब्ध नहीं हैं किन्तु उन सभी में महत्वपूर्ण ग्रन्थ 'स्याद्वादरहस्य' उपलब्ध होकर प्रकाशित हो रहा है यह आनन्द की बात है । इस ग्रन्थ का खुद उपाध्याय जीने अनेक ग्रन्थों में अतिदेश किया है जिन में से कुछ इस प्रकार हैं। १ अधिकं मत्कृत-न्यायालोक-स्याद्वादरहस्ययोरवसेयम् । शास्त्रवार्तासमुच्चय-स्त०१ प्रलो. ४२ की टीका स्याद्वादकल्पलता २ 'विस्तरस्तु स्याद्वादरहस्ये' शा० वा० स्त० ६ श्लो० ३७ टीका ३ 'अधिकं स्याद्वादरहस्ये' ज्ञानार्णव पृष्ठ ३४।२ और ३६।१ ४ 'अधिकं स्याद्वादरहस्यादवसेयम्' न्यायालोक ५ 'धर्मधर्मिणोर्मेदाभेदस्य सप्रपञ्चं स्याद्वादरहस्ये व्यवस्थापितत्वात्' ज्ञानार्णव पृष्ठ ३९।१ इस तरह भाषारहस्य, शास्त्रावार्ता की टीका स्याद्वादकल्पलता, ज्ञानार्णव-न्यायालोक आदि अनेक ग्रन्थों में उस उस विषय के विस्तार को जिज्ञासा के लिये श्री उपाध्यायजी स्याद्वादरहस्य की ओर अंगुलीनिर्देश करते है। इस ग्रन्थ में श्री उपाध्यायजी ने स्याद्वाद के सर्वाङ्गीण स्वरूप बताने के लिये एक सफल और गौरवपूर्ण प्रयास किया है । उसको समझने के लिये आवश्यक है कि हम प्रथम उसकी भूमिका को समझ ले । ४-'स्याद्वादरहस्य' की पार्श्वभूमि भगवान ऋषभदेव से लगाकर भगवान महावीरस्वामी पर्यन्त ऐसा काल बीत गया जिसमें समय समय पर शाश्वत सुख और अध्यात्म का महान संदेश सुनाने वाले २४ तीर्थकर सर्वज्ञ भगवन्त थे । किन्तु अध्यात्म साधना की मूल बुनीयाद आत्मा-पुण्य-पाप-परलोक इत्यादि ऐसे अतीन्द्रिय पदार्थ हैं जिनके प्रत्यक्ष इन्द्रियगोचर न होने से हेतु-तर्क और दृष्टान्तों की सहाय से लोगों के हृदय में इनके प्रति श्रद्धा जमाई जाती थी । भगवान महावोर के

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