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( २७ ) कि भुवन में यश की वृद्धि तीन उपायों से ही हो सकती है, अच्छे कवित्व से, दान व पौरुष से (१, १, १४), 'महाकवि का कथाबंध अर्थ-प्रचुर होता है' (२, ५, ८) 'सुकवि की कथा जनमनहारी (२, ६, ३) और लक्षणों अलंकारों से संयुक्त होती है (८, २)। सरस, व्यंजन सहित, मोदकसार व प्रमाणसिद्ध भोज्य और काव्यविशेष विरले ही होते हैं (६, १)। कोमल पद, उदार, छन्दानुवर्ती, गंभीर, अर्थसमृद्ध तथा हृदयेच्छित सौन्दर्ययुक्त कलत्र और काव्य संसार में कभी किसी को प्राप्त होते हैं, (८, १)।
__ यह काव्य विशेष रूप से छन्द और अलंकार-प्रधान कहा जा सकता है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, व्यतिरेक आदि अलंकारों का पद-पद पर उपयोग पाया जाता है और ये अलंकार बहुधा श्लेषाधारित हैं जिनसे कवि की कल्पना और शब्दचातुरी का अच्छा परिचय प्राप्त होता है। मगध देश के वर्णन में कवि ने श्लेषात्मक विशेषणों द्वारा कामिनीमुख, धूर्तकुल, वेश्या, पथिक स्त्री, नन्दनवन आदि उपमानों का (१, ३,) राजगृह नगर के वर्णन में त्रिदशेन्द्र, मन्मथ व अमथित उदधि की उपमाओं का (१,४), विपुलाचल पर्वत संबंधी उत्प्रेक्षाओं का चम्पापुर के वर्णन में रामायण, महाभारत, छंद (१, ८) मन्दरपर्वत आदि उपमानों का (२, ३) राजा धाईवाहन के वर्णन में मेघ, सूर्य, विभीषण, इन्द्र, अर्जुन, भीम बाहुबलि, राम, कातिकेय, ब्रह्मा, विष्णु आदि से वैशिष्टय-दर्शक व्यतिरेक अलंकारों का वर्णन कवि की अलंकार-शैली के अच्छे उदाहरण हैं। उसी प्रकार राजश्रेष्ठी ऋषभ दास (२, ५) सेठानी तथा गोप के वर्णन (२, ६) भी अलंकार-योजना के अच्छे द्योतक हैं । वर्णन-शैली का सौन्दर्य खाद्य पदार्थों (५, ६) वादित्रों (७, ६), प्रमोद वन के वृक्षों (७, ८) मनुष्याकार माटी के पुतलों (८, ११) के वर्णनों में देखने योग्य है। संधि ४ में कवि ने स्त्री जाति के लक्षणों का व संधि : में युद्ध का जो विस्तार से वर्णन किया है वह उनके पाण्डित्य और कला-प्रावीण्य का उत्तम द्योतक है।
छन्द-विश्लेषण ___ यों तो अपभ्रंश के काव्य में छन्दों का अपना वैशिष्ट य रहता ही है, 'सुदंसण चरिउ' में छन्दों का वैचित्र्य अन्य काव्यों की अपेक्षा बहुत अधिक पाया जाता है। वैसे तो कवि ने आदि में ही इस रचना को 'पद्धडिया बन्ध' कहा है। किन्तु यह अपभ्रंश छन्दशैलियों का सामान्य नाम प्रतीत होता है। यर्थाथतः तो जान पड़ता है कि कवि ने अपना छन्दकौशल प्रगट करने का इस काव्य में विशेष प्रयत्न किया है । अनेक अपरिचित छन्दों का तो नामोल्लेख भी कर दिया है तथा कहीं-कहीं उनके लक्षण भी दे दिये हैं। उन्होंने स्वयं कहा भी है कि काव्य की विशेषता उसके 'छन्दानुवर्ती' (२.६.७) अर्थात् नाना छन्दात्मक होने में है। ग्रन्थ में प्रयुक्त छन्दों का कुछ परिचय उनके नाम, प्रत्येक चरण की मात्रा-संख्या या वर्णसंख्या, अन्य लक्षण, सन्दर्भ और उदाहरण क्रम से प्रस्तुत किया जाता है । आदि में