________________
( २६ )
'मैं प्रद्योत हूँ, मैं प्रद्योत हूँ' किंतु लोगों ने समझा वह उस वणिकू का पागल भ्राता होगा जो प्रतिदिन की भाँति वैद्य के यहाँ ले जाया जा रहा होगा । इस कारण किसी ने कोई रोक टोक नहीं की, और अभयकुमार अपनी प्रतिज्ञानुसार चण्ड प्रद्योत को बन्दी बनाकर राजगृह ले गया । यहाँ जिस प्रकार एक पागल मनुष्य af द्वारा नगरवासियों को आश्वस्त करके अभयकुमार प्रद्योत को बन्दी बना ले गया, उसी प्रकार यहाँ पण्डिता ने पुतलों द्वारा द्वारपालों को लापरवाह बनाकर सुदर्शन का अन्तःपुर में प्रवेश कराया ।
भाषा, शैली और काव्यगुण
सुदंसणचरिउ की रचना भारतीय आर्य भाषा के मध्ययुगीन तृतीय स्तर की उसी विशेष भाषा में हुई है जो अपभ्रंश नाम से प्रसिद्ध है तथा जिसका विकासकाल पांचवीं से दशमी शती ईस्वी के बीच माना जाता है । काव्य शास्त्रों में बहुधा अपभ्रंश को संस्कृत और प्राकृत से भिन्न भाषा प्रकार माना गया है । किन्तु वैयाकरणों ने उसे अपने प्राकृत व्याकरणों में उसी प्रकार स्थान दिया है जैसा शौरसेनी, मागधी व पैशाची को और इस प्रकार यह सूचित किया है कि वह प्राकृत का ही एक भेद है । गत अर्ध शताब्दी में अपभ्रंश का प्रचुर साहित्य प्रकाशित हो चुका है तथा उस भाषा के अध्ययन व साहित्य के इतिहास पर भी अनेक लेख व ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं । इस भाषा के प्राचीन और प्रकाण्ड कवि स्वयंभू और पुष्पदन्त की रचनाओं में इस भाषा और इसकी काव्यशैली का स्वरूप बहुत स्पष्टतया हमारे सम्मुख आ चुका है । प्रस्तुत रचना में भी वही टकसाली भाषा का स्वरूप व काव्यशैली पायी जाती है ।
अपभ्रंश की ध्वनियां तथा शब्द भण्डार वे ही हैं जो अन्य प्राकृतों में पाये जाते हैं । शब्द तत्सम तद्भव और देशी इन तीनों प्रकार के विद्यमान हैं । देशी शब्दों की मात्रा यहां अन्य प्राकृतों की अपेक्षा अधिक पायी जाती है । किन्तु काव्य शैली की यहां अपनी विशेषता है । चरित काव्य या कथा का विभाजन संधियों में और प्रत्येक संधि का विभाजन कडवकों में किया जाता है । कडवक की रचना अधिकता से पज्झटिका और अलिल्लह छंदों में की जाती है जिनके अन्त में एक घत्ता छंद रहता है । प्रसंगानुसार विविध छंदों का उपयोग किया जाता है। जिनका एक सामान्य लक्षण है पादान्त यमक या तुकबन्दी जो इन छंदों को संस्कृत प्राकृत के छन्दों से पृथक् निर्दिष्ट करता है । प्रस्तुत रचना में छन्दों का विपुल वैचित्र्य है । कवि को इस कला में अच्छा सौष्ठव प्राप्त है । उन्होंने अनेक स्थलों पर तो अपने विलक्षण छन्दों के नाम निर्दिष्ट कर दिये हैं । ग्रंथों के समस्त छन्दों का परिचय यहां अलग से दिया जा रहा है। जहां लगभग एक सौ छन्दों का निर्देश प्राप्त होगा। इनमें कवि द्वारा प्रयुक्त विषमपदी छंद विशेष ध्यान देने योग्य है । मात्रिक और वर्णिक छंदों का यहां अच्छा प्रतिनिधित्व पाया जाता है । कवि ने स्वयं विविध प्रसंगो में काव्य के विषय में जो बातें कही हैं उनसे परोक्ष रूप से उनके काव्य के गुणों का संकेत मिलता है । वे आदि में ही कहते हैं