Book Title: Sramana 2003 10 Author(s): Shivprasad Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi View full book textPage 7
________________ जैन-दर्शन की द्रव्य-दृष्टि एवं पर्यावरणीय नीतिशास्त्र का पारस्परिक सम्बन्ध डॉ० राम कुमार गुप्त* जैन-दर्शन में 'द्रव्य' को सद्रूप (सत् द्रव्यम्) प्रतिपादित किया गया है, जिससे न केवल जीव वरन् जगत् की समस्त अन्य वस्तुएँ भी सत्य निरूपित हो जाती हैं। वस्तुत: वे मानते हैं कि जितना निश्चित ज्ञाता का अस्तित्व है, उतना ही निश्चित ज्ञेय का भी है। इससे उनका वस्तुवादी और सापेक्षतावादी दृष्टिकोण प्रकट होता है। जैन दर्शन की 'द्रव्य- दृष्टि' विश्वमीमांसा से सम्बन्धित है, जिसमें संसार के समस्त 'सद्रूपद्रव्य' को सजीव और अजीव के रूप में विभाजित किया गया है। ध्यातव्य है कि जैन दार्शनिकों ने जीवन के लक्षणों के अवलोकन से 'जीव-द्रव्य' (चेतना लक्षणो जीव:) का प्रतिपादन किया है, न कि व्यष्टि के अस्तित्व के आधारभूत तत्त्व की गवेषणा से। अत: जैन-दर्शन के 'जीव' शब्द को इसी मूल अर्थ में यानी 'प्राणतत्त्व' के अर्थ में ही ग्रहण करना उचित होगा। ___ जैन-दर्शन के अनुसार सारा संसार अनन्तानन्त असंख्य जीवों से आपूर है। जीवद्रव्य दो प्रकार के हैं - 'मुक्त' एवं 'बद्ध'। मुक्त-जीव वे हैं जो संसारचक्र से छुटकारा पा चुके हैं। ‘बद्ध जीव' वे हैं जो अभी तक बन्धन में हैं। बद्ध जीव भी दो प्रकार के होते हैं - 'त्रस और स्थावर'। 'त्रस जीव' गतिमान होते हैं और उनमें स्पर्श, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत ये पांचों इन्द्रियां रहती हैं और 'स्थावर जीव' में किसी भी प्रकार की गति नहीं होती और स्थावरकायिक जीवों में एकमात्र स्पर्शन इन्द्रिय होती है। त्रस जीवों में चैतन्य का स्वरूप तथा इसकी मात्रा भिन्न-भिन्न होती है, जैसे - कृमि, पिपीलिका, भ्रमर, मनुष्य आदि। 'स्थावर जीव' में ऐसे एकेन्द्रिय जीव हैं जो क्षिति, जल, वायु, अग्नि, वनस्पति आदि में वास करते हैं। यों तो इन जीवों में चैतन्य का सर्वथा अभाव मालूम पड़ता है; लेकिन वस्तुतः इनमें 'स्पर्श-ज्ञान' वर्तमान रहता है। पृथ्वी नामक स्थावर जीव में मूंगा, पाषाण आदि की गणना की जाती है; क्योंकि ‘डाभ' के अंकर के समान काटने पर वे पुन: बढ़ जाते हैं। जल तत्त्व का चिह्न सजीवता और काम जनित अन्य भाव है। जल की सजीवता का प्रमाण यह है कि आकाश * वरिष्ठ प्राध्यापक, टी०डी० पी०जी० कालेज; जौनपुर। Jain Education International For Private & Personal Use Only Fort www.jainelibrary.orgPage Navigation
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