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श्री राण
॥१२॥
रोष तणे वश राय, सुद्धि बुद्धि सर्व गरी ॥ कदे दूत तुझ राय, अम खंग. घर आण जरी ॥ १३॥ देखें राजकुमारी, रूपे रंन जिसी री ॥ दूत तणे मन वात, विस्मय एद वसीरी ॥१४॥ किस्युं विमासे मूढ, में जे वात कहीरी॥न फरे जगमां तेद, अविचल साची सही री ॥१५॥ श्री श्रीपालनो रास, चोथी ढाल कही री ॥ विनय कहे निरवाण, क्रोधे
सिदि नहीं री॥१६॥ __ अर्थ-रोष जे क्रोध तेना वश थकी राजानी शुद्धि बुद्धि सर्व जती रही , तेथी इतने कहे , ने के तुं जश्ने तारा राजाने अमारे घेर तेडी लाव ॥ १३॥ तेने रंजा नामनी जे अप्सरा तेना जेवी रूपवाली एवी राजकुंवरी हुं श्रापुं. ए वात पूतना मनमां विस्मय जेवी थर वसी एटले लाग। ॥ १४ ॥ तनुं विस्मित चित्त जोश राजा कहेवा लाग्यो के हे मूढ ! तुं तारा मनमां शुं विमासे ने ? जे में वात करी ते जगतमां फरे नहीं, एटले केवारे पण चले नहीं, ( सही के०) निश्चे। साची जाणवी ॥ १५॥ ए श्री श्रीपाल राजानो रास तेनी चोथी ढाल कही. श्री विनयविजयजी कहे ते के ( निरवाण के ) निश्चे क्रोध थकी सिद्धि नथी ॥ १६ ॥
॥दोहा॥ कोप कग्नि नूपति हवे, आव्यो निज आवास ॥ सिंहासन बेगे अधिक, अति अनिमान विलास ॥१॥
॥१२॥ अर्थ-हवे क्रोधे करी कठिन थयेवू ने हृदय जेनुं एवो राजा रयवाडीथी पागे फरी पोताना है आवासने विषे आवीने सिंहासन उपर वेगे, पण तेना मनमा अत्यंत अधिक एटले घणो अनि
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