Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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प्राक्कथन
प्रकट किया, और आगे भी उसे नियत रखनेकी प्रेरणा की । किन्तु इस बार हमारे पास कोई विशेष शंकाएं नहीं आईं। तब हमने इसके लिये पत्रोंमें एक सूचना निकाली, जिसके फलस्वरूप जो शंकाएं हमारे पास आईं उनका हमने पूरा उपयोग किया है, और प्रस्तुत भागकी प्रस्तावना के अन्तर्गत शंका-समाधान, एवं शुद्धिपत्र में पूर्वभागों के पाठका संशोधन उसाकी सुपरिणाम है । इस ओर विशेषरूप से रुचि दिखलाने के लिये श्रीयुक्त नानकचंदजी, खतौली, श्रीयुक्त रतनचंदजी मुख्तार, सहानपुर, और श्रीयुक्त नेमिचंदजी वकील, सहारनपुर, को हम धन्यवाद देते हैं । यदि उनकी भेजी गई कोई शंकाएं या शुद्धियां, यहां सम्मिलित नहीं की गईं हैं तो समझना चाहिये कि उनका संकलन पूर्वभागों में हो चुका है जिनका पाठकोंको सदैव ध्यान रखना चाहिये | कभी कभी शंकाकार हमसे ऐसा प्रश्न भी कर बैठते हैं कि अमुक बात अमुक प्रकार से क्यों नही कहीं या अमुक बात क्यों नहीं जोड़ी गई ? इसके उत्तर में हम अपने पाठकों का ध्यान केवल हमारे इस आदर्श की ओर आकर्षित करते हैं कि
नामूलं लिख्यते किञ्चित्, नानपेक्षितमुच्यते '
इस महान् कार्यमें हमें अब उत्तरोत्तर कठिनाइयों का अनुभव हो रहा है। जैसा कि हम पूर्व भागमें प्रकट कर चुके हैं, हमारे एक सहयोगी पं. फूलचंद्रजी शास्त्री उस भाग के सम्पूर्ण हो सकने के पूर्व ही आकस्मिक विपत्ति के कारण यहांसे चले गये थे। तबसे वे फिर वापिस नहीं आसके । अतएव इस भागका संपूर्ण कार्य केवल पं. हीरालालजी सिद्धान्तशास्त्रीकी सहायतासे हुआ है । प्रूफ और प्रति मिलान में तिलोयपण्णत्ति-विभाग के कार्यकर्ता पं. बालचन्द्रजी शास्त्रीका साहाय्य रहा है । इधर यूरोपीय युद्धके कारण कागज आदिका भाव बेहद बढ़ता गया । यथेष्ट कागज ठीक समय पर मिलना भी अशक्य हो गया । इतने पर अमरावती नगरमें साम्प्रदायिक झगड़ेने कुछ समय के लिये ऐसा भीषणरूप धारण किया कि आफिस और प्रेसका कार्य बंद रखना पड़ा । पुस्तकोंकी बिक्री भी इतनी नहीं होरही जिससे आगेका कार्य चलता जावे। इससे हमारा फंड भी कुछ कुछ कम होता जा रहा है । इन सिद्धान्त ग्रंथोंके प्रचारको रोकने का भी जो प्रयत्न हो रहा है उसका हम ऊपर उल्लेख कर ही आये हैं । किन्तु इन सब कठिनाइयों के होते हुए भी किसी अज्ञात शक्तिके प्रभावसे कार्य अग्रसर होता ही गया। हम कहां तक अपने आदर्शको स्थिर रख सके हैं, इसका निर्णय करना हमारे मर्मज्ञ पाठकोंके अधिकारमें है ।
किंग एडवर्ड कालेज,
अमरावती १५-१२०४१
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हीरालाल जैन
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