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माँ सरस्वती
२३ श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग
३. मानसिक १. ग्रहणशीलता में मन का सहभाग बहुत ही विशेषता रखता है । मन की अनुकुलता से अन्य सभी प्रतिकुलताए गौण बन जाती है । अभ्यास में मन ही न होवे, तो सर्व अन्य मेहनत निष्फल है । इसके लिए पालक तथा शिक्षकों ने सब मुमकिन प्रयत्न करने चाहिए ।
विद्यार्थीओं के लिए एक सुभाषित हैसुखार्थी चेत्, त्यजेत् विद्या, विद्यार्थी चेत् त्यज्येत् सुखम् । सुखार्थिनः कुतो विद्या, विद्यार्थीनः कुतो सुखम् ।।
अर्थात् : सुख की इच्छा हो, तो विद्या की इच्छा छोड देनी चाहिए, विद्या की इच्छा हो तो सुख की इच्छा छोड देनी चाहिए, कारण कि विद्यार्थी को सुख और सुखार्थी को विद्या कहाँ से मिलेगी ?
• पढने के लिए कठोर परिश्रम का कोई पर्याय नहीं है | ज्ञान सहजता से नहीं, कडी साधना से प्राप्त होता है । विद्या प्राप्ति के लिये संयम, सादगी, साधना एवं परिश्रम की आवश्यकता होती है । जिसकी यह करने की तैयारी है, वही पढ सकता है, पढा सकता है |
• आज का शिक्षण-तन्त्र विद्यार्थी को विद्यार्थी नहीं, अपितु परीक्षार्थी मानता है और परीक्षा में उत्तीर्ण होने के एक मात्र ध्येय को अपना लक्ष्य बना देते है । वे तन्त्र, विद्या प्राप्त हेतु कुछ भी उपयोगी नहीं पडते । अपनी संतान को विद्यार्थी बनाना हो, तो उन्हें विद्या प्राप्त करने की प्रेरणा हमे ही देनी होगी । सादगी, संयम, परिश्रम को आभूषण मानना होगा।
तो जरुरी है, विद्यार्थी को बालक नहीं, अपितु विद्यार्थी ही मानने की ।
२. आजकल विद्यार्यों में मनोबल, एकाग्रता, शांति का अभाव है । पूरे वर्ष में हररोज सोलह घंटे अभ्यास की , न वो कल्पना कर सकते, न साल में सौ पुस्तक पढने की । 'मौखिक' तथा 'रिटन' परीक्षा के वक्त, वे अपना आत्मविश्वास खो बैठते है। उनमें विचारों की न तो स्पष्टता होती है, न ही अभिव्यक्ति की क्षमता । उनके मन में अपने स्वयं प्रति चीड भी होती है और शरम भी ।
• इसके लिये घर में तथा विद्यालय में शांत वातावरण की जरुरत