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माँ सरस्वती
श्री सरस्वती साधना विभाग पारखी के लिये अतिशय प्रभा युक्त उत्तम जाति के अनमोल रत्नों के प्रति जो आकर्षण होता है, वैसा आकर्षण किरणों से प्राप्त चमक वाले कांच के टुकडे के प्रति कभी भी नहीं हो सकता ।
चेत स्त्वयि श्रमणि ! पातयते मनस्वी। स्याद्वादि निम्न नयतः प्रयते यतोऽहम् ।। योगं समेत्य नियम व्यव पूर्वकेन । कश्चिन् मनो हरति नाथ भवान्तरेऽपि ।।२१।।
अष्ट कर्मों से उत्पन्न हुए खेद को हरने वाली एवं रागद्वेष रूपी श्रमसे रहित मां शारदा ! कदाच किसी अन्य भवमें कोई स्व कपोल कल्पित विचारों को प्रकट करने वाले मनस्वी आकर, स्याद्वाद की प्ररूपणा करने वाले तीर्थंकरों के द्वारा प्ररूपित नैगमादिक गंभीर नय से मुझे भ्रष्ट करे, तो भी "निश्चय एवं व्यवहार नय से युक्त जैन धर्म है" इस बातको हृदय में धारण करके 'सप्तभंगी' स्वरूपी आपके प्रति मैं अपने मन को निश्चल करता हूं |
ज्ञानं तु सम्य गुदयस्य निशं त्वमेव । व्यत्यास संशय धियो मुखरा अनेके | गौरांगि ! सन्ति बहुभाः ककुभोऽर्कमन्याः । प्राच्येव दिग् जनयति स्फुरदंशु जालम् ।।२२।।
हे उज्जवल देह वाली, गौरवर्णी, माँ शारदा ! विपर्यय एवं संशय से युक्त अनेक वाचाल अर्थात् मिथ्याज्ञानी तो सर्वत्र मिल सकते हैं, परन्तु केवल आपका ज्ञान ही सम्यगज्ञान है अर्थात् आपही सदैव सम्यग्ज्ञान धारिणी माता हो । जैसे कि, अनेक नक्षत्रों से युक्त तो, सभी दिशाए होती हैं, परन्तु खिली हुई प्रकाश किरणों के समूह को जन्म देने वाली अर्थात् सूर्योदय से विभूषित होने का गौरव तो केवल पूर्व दिशा को ही प्राप्त होता है ।
यो रोदसी मृति जनी गमयत्यु पास्य । जाने स एव सुतनु ! प्रथितः पृथिव्याम् ।। पूर्वं त्वयाऽऽदि पुरुष सदयो ऽस्ति साध्वि । नान्यः शिवः शिव पदस्य मुनीन्द्र पन्थाः ।।२३।।