Book Title: Samyag Gyanopasna Evam Sarasvati Sadhna
Author(s): Harshsagarsuri
Publisher: Devendrabdhi Prakashan

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Page 109
________________ ९९ माँ सरस्वती श्री सरस्वती साधना विभाग किंचौद्य मैन्द्र मनघे ! सति ! शारदेऽत्र । किं मन्दराद्रि शिखरं चलितं कदाचित् ? ॥१५॥ हे नि:ष्पाप ! हे सती ! हे शारदा ! आपके इस स्तोत्र को प्रारंभ करते समय आपश्री द्वारा प्राप्त वरदान ही इस स्तोत्र को रचने में कारण भूत हुआ है । महर्षि व्यासजी की माता सत्यवती या अयोध्यापतिश्री रामचंद्रजी की पत्नि सीताजी के अडिग वृतके समान किसी भी प्रकार के विकार के मार्ग को प्राप्त मैं नहीं हुआ हूँ। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है, क्योंकि, देवराज इन्द्र के सानिध्य को प्राप्त पर्वतराज मेरू का शिखर कभी भी चलायमान नहीं होता है । निर्माय शास्त्र सदनं यतिभिर्ययैकं । प्रादुष्कृतः प्रकृति तीव्र तपो मयेन ॥ उच्छेदितां हउलपैः सति ! गीयसे चिद् । दीपो ऽपर स्त्वमसि नाऽथ जगत्प्रकाशः ||१६|| हे सती ! आपने वरदान देकर अद्वितीय शास्त्ररूपी गृह का निर्माण करके, जगत को प्रकाश देने वाले अपूर्व ज्ञान दिपक को प्रकट करवाया है । अत: हे । माता ! अपने असाधारण स्वभाव से उत्कृष्ट तपरूपी तलवार से पाप गुच्छों से लदी लता को काटने वाले ज्ञानी मुनि जन भी सदैव आपकी ही स्तुति करते हैं। यस्या अतीन्द्र गिरि रांगि रस प्रशस्य । स्त्वं शाश्वती स्वमत सिध्धि मही महीयः ।। ज्योतिष्मयी च वचसां तनु तेज आस्ते । सूर्यातिशायि महिमाऽसि मुनीन्द्र लोके ।।१७।। हे सती ! आपने इन्द्रगिरि मेरू का भी अतिक्रमण किया है अर्थात् आप मेरू पर्वत से भी अधिक स्थिर एवं उच्च हो, अतः आप बृहस्पति द्वारा भी प्रशंसित हो । आपके वचनों की महिमा एवं लिपी रूपी देहकी मनोहर रचना का तेज, सूर्य से भी अधिक है । अतः आपकी वाणी एवं लिपी ये दोनो ही गणधरादि योगीश्वरों के लोक में भी माननीय है । स्व मतानुसार सिद्धि नामकी पृथ्वी रूप सिद्धि शिला के समान एवं शैव मतानुसार अणिमादिक आठ सिद्धियों के उत्पत्तिस्थान रूपी हे माँ शारदे ! आप ही सर्वोत्तम कांतिवाली एवं शाश्वती हो।

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