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माँ सरस्वती
. श्री सरस्वती साधना विभाग सभी प्रकार की इच्छाओं से मुक्त, हे निःस्पृहा ! अथवा वरदात्री होने के कारण ज्ञानीजनों द्वारा आपसे मनोकामना प्राप्ति की आशा की जानेवाली हे माँ सरस्वती ! जिस प्रकार उदयगिरि के शिखर से आने वाले सहस्त्र रश्मियों से शोभित सूर्य की प्रखर किरणें, विश्वव्यापी अंधकार का नाश करती है, वैसे ही आपका वाणी विलास सभी विद्याओं के विनोदी, बड़े बड़े पंडितजनों की जिह्वान पर रहे हुए संशय एवं अज्ञान रूप अंधकार का नाश करता है ।
पृथ्वी तलं द्वयम पायि पवित्रयित्वा । शुभ्रं यशो धवलयत्य धुनोललोकम् ।। प्राग् लङघयत् सुमुखि ! ते यदिदं महिम्ना । मच्चै स्तटं सुरगिरे रिव शात कौम्भम् ।।३०।।
हे सुन्दर देहधारी माँ सरस्वती ! जन्म-मृत्युरूपी संकटों से व्याप्त नागलोक एवं पृथ्वीलोक रूपी दो धरातलों को पवित्र करने वाली आपकी वांछितदायक कीर्ति, तीर्थंकर के जन्मोत्सव के स्नात्र कलश के समान उज्ज्वल है। मानो जो अभी अभी अपनी महिमाओं के अतिशयों से, सुरगिरि मेरू पर्वतके स्वर्णमय कलशों को पार करती हुई स्वर्गलोक को भी निर्मल बना रही हो ।
रोमोर्मिभि (वन मातरिव त्रिवेणी । संगं पवित्रयति लोक मदोऽङगवर्ति । विभ्राजते भगवति ! त्रिवली पथं ते । प्रख्यापयत् त्रिजगतः परमेश्वर त्वम् ||३१||
हे जगतमाता ! हे परमेश्वरी ! हे माता ! आपकी सुन्दर देह के उदर पर रही हुई तीन रेखाओं से बना हुआ त्रिवली मार्ग, आपके त्रिभुवन के परमेश्वर पने को कथन करता हुआ, गंगा, यमुना एवं सरस्वती रूपी त्रिवेणी संगम प्रयागराज के समान, आपके रोमरूपी कल्लोलों के द्वारा जगत को पवित्र करता हुआ विशेष शोभाको प्राप्त कर रहा है।
भाष्योक्ति युक्ति गहनानि च निर्मिमीषे । यत्र त्वमेव सति ! शास्त्र सरोवराणि || जानीमहे खलु सुवर्ण मयानि वाक्य । पद्मानि तत्र विबुधाः परि कल्पयन्ति ॥३२॥