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माँ सरस्वती
श्री सरस्वती साधना विभाग हे माता ! सर्वत्र ही आपकी अचिन्त्य महिमा स्पष्ट रूप से प्रतिभासित हो रही है । अर्थात् आपकी महिमा अपार है । क्योंकि, हे देवी ! आपकी कृपा से तिर्यंच भी तिर्यंच भव को त्यागकर मनुष्य भव को प्राप्त कर लेते हैं तथा मनुष्य कामदेव मदन के समान सुन्दर स्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं एवं देव तथा दानव भी योनि रहित जन्म को प्राप्त करते हैं।
ये चानवद्य पदवी प्रतिपद्य पद्मे ! । त्वच्छिक्षिता वपुषि वासरतिं लभन्ते ।। नोऽनुग्रहात् तव शिवा स्पद माप्य ते यत् । सद्यः स्वयं विगत बन्ध भया भवन्ति ॥४२॥
हे पद्मे ! आपकी कृपा रूप ज्ञान प्राप्त करके अर्थात् आपके वरदान से विभूषित होकर जो मनुष्य, स्याद्वाद रूपी दोष रहित मार्ग को प्राप्त कर लेते हैं, फिर, उन्हें माता के शरीर में निवास करके जन्म लेने में जरा भी रूचि नहीं रहती । अर्थात वे गर्भावतार से पूर्णतः विमुख हो जाते हैं । अथवा वे आपकी कृपा से मोक्षपद को प्राप्त करके अपने स्वयं के पुरूषार्थ से तत्काल अष्ट कर्म के बन्धन के भय से मुक्त हो जाते है ।
इन्दोः कलेव विमलाऽपि कलङ्क मुक्ता । गङ्गेव पावनकरी न जलाशयाऽपि ॥ स्यात् तस्य भारति ! सहस्रमुखी मनीषा | यस्तावकंस्तव मिमं मतिमान धीते ।।४३।।
हे भारती ! जो बुद्धिशाली आपके इस स्तोत्र का पठन करते हैं, उनकी बुद्धि चंद्रमा की सहस्रमुखी कला के समान निर्मल और कलंक रहित होने के साथ ही गंगा के जल के समान दूसरों को पवित्र करने वाली होती हैं एवं मूरों के लिये तो निश्चितरूप से अभिप्राय रहित ही होती है ।
यो ऽहअये ऽकृतजयो ऽगुरूखे ऽमकर्ण । पाद प्रसाद मुदि तो गुरू धर्मसिंहः ।। वाग्देवी ! भूम्नि भवतीभि रभिज्ञ सके । तं मानतुङग मवशा समुपैति लक्ष्मीः ॥४४॥ ..