Book Title: Samyag Gyanopasna Evam Sarasvati Sadhna
Author(s): Harshsagarsuri
Publisher: Devendrabdhi Prakashan

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Page 72
________________ ६२ ६२) माँ सरस्वती श्री सरस्वती साधना विभाग १३) हाथ को ऐसे ही रखते हुए (अगर याद अथवा कंठस्थ है तो) भक्तामर महास्तोत्र की ५/६/१५ वी गाथा का तीन बार स्मरण/रटण करें । १४) श्रुतज्ञान एवं श्रुतदेवी की आरति उतारकर वासक्षेप पूजा अवश्य करें। १५) अंतमें विसर्जन विधि करके सर्व मंगल करे । - अदभूत त्रिवेणी संगम जहाँ गंगा-जमना और सरस्वती जैसी पवित्र महानदी का त्रिवेणी संगम होता है वह संगम-स्थान अपने आप पवित्र 'प्रयाग' एक 'तीर्थ' तुल्य बन जाता है। ___ जी हाँ ! मोक्ष पाने के लिए अर्थात् 'सकल कर्म के विनाशार्थे अथवा केवलज्ञान जैसे संपूर्ण ज्ञान की प्राप्त्यर्थे सम्यग् दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप त्रिवेणी धर्म की साधना-शुद्धि एवं वृद्धि अत्यंत जरुरी है। श्री उमास्वाति वाचक वर्य विरचित श्री तत्वार्थ सूत्र के प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र में ही लिखा है-सम्यग् दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्ष मार्गः । • सम्यग् दर्शन + सम्यग् ज्ञान + सम्यक् चारित्र = मोक्ष । सवाल यह है कि अगर इन तीन प्रकार के धर्म के संयोजन से हि मोक्ष प्राप्ति हो सकती है, तो इन तीनों की प्राप्ति-शुद्धि एवं वृद्धि के लिए क्याँ करना चाहिए ? हाँ जी ! नीचे श्रीमान् युगपुरुष श्री मानतुंगसूरीश्वरजी विरचित श्री भक्तामर महास्तोत्र की ५-६ और १५ वी गाथा दी गई है। इन महाप्रभावी एवं महाचमत्कारी गाथा का प्रतिदिन एकाग्रता एवं विधिपूर्वक तथा शुद्धि उच्चारण पूर्वक कम से कम २१ बार (शक्यत: १०८ बार) अगर स्मरण किया जाए, तो निश्चित रुप से द्रव्य एवं भाव दोनों तरह से अवश्यमेव लाभ होगा। १) सम्यग्दर्शन की शुद्धि-वृद्धि एवं आंखो के तेज को बढाने भक्तामर की ५ वी गाथा गिने-सोऽहं तथाऽपि तव भक्ति वशान्मनीश ! कर्तुं स्तवं विगत शक्ति रपि प्रवृत्तः । प्रीत्याऽऽत्म वीर्य-मविचार्य मृगो मृगेन्द्रं; नाभ्येति किं निज-शिशोः परिपाल नार्थम् ?|| २) सम्यग्ज्ञान की शुद्धि-वृद्धि एवं बुद्धि को सतेज बनाने भक्तामर की ६ट्ठी गाथा गिने-अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहास-धाम, त्वद् भक्तिरेव मुखरी-कुरुते बलान् माम् । यत् कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति, तच्चारू चूत-कलिका-निकरैक हेतुः ॥ ३) सम्यग्चारित्र की शुद्धि-वृद्धि एवं ब्रह्मचर्य का तेज बढाने भक्तामर की १५वी गाथा गिने- चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांग-नाभिर्, नीतं मनागपि मनो न विकार-मार्गम् । कल्पान्त काल मरूता चलिता-चलेन, कि मन्दराद्रि-शिखरं चलितं कदाचित् ? |

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