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माँ सरस्वती
श्री सरस्वती साधना विभाग करना या समुद्र को अपने दोनो हाथों से तैरकर पार करना। ये तीन कार्य जो कि मनोज्ञता, उन्नति एवं गंभीरता इत्यादि मनोहर गुणों के आधारभूत हैं । इन कार्यो को स्वयं अपनी बुद्धि द्वारा पूरा करने अर्थात् आपकी स्तुतिगान रूपी यह स्तोत्र प्रारंभ करने में सभी विषयों में महान् विचारक या पूर्ण ज्ञानी हो ऐसा कौन सा पंडित समर्थ हो सकता है ? इस कार्य को संपन्न करने के लिये केवल सर्वगायक ब्रह्मा ही समर्थ हो सकते हैं ।
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त्वद्वर्णना वचन मौक्तिक पूर्णमेक्ष्य ।
मातर् ! न भक्ति वरटा तव मानसं मे ॥
प्रीते जगत्त्रय जन ध्वनि सत्यताया । नाभ्येति किं निज शिशोः परि पालनार्थम् ? ||५||
हे माता ! जिस प्रकार कोई भी माता प्रीतिवरा अपने बालक के पालन एवं रक्षण हेतु आती है, त्रिभुवन के लोगों की इस उक्ति की सत्यता का निर्वाह करने हेतु आपके बालक के समान ही मेरे मानस को भी आपकी स्तुति के वचन रूपी मुक्ताफल से परिपूर्ण करने के लिये, क्याँ आपकी भक्तिरूपी हंसी मेरे मानस की तरफ नहीं आयेगी ? अर्थात् मुझे द्रढ़ विश्वास है कि जरूर आयेगी क्योंकि, राजहंस भी मानसरोवर के प्रति आकर्षित होकर निश्चित रूप सें आते ही हैं, यह बाततो जग प्रसिद्ध है ।
वीणा स्वनं स्व सहजं यदवाप मूर्च्छाम् ।
श्रोतु र्न किं त्वयि सुवाक् ! प्रिय जल्पितायाम् ॥ जातं न कोकिल रवं प्रतिकूल भावं ।
तच्चारू चूत कलिका निकरैक हेतुः ||६||
हे माँ सरस्वती ! (अथवा सुंदर वाणी धारक श्रुतदेवते !) आपकी सुंदर और मधुर वाणी के प्रियबोल सुनने के बाद वीणा के स्वाभाविक स्वर भी मानो मूर्छना या बेभान अवस्था को प्राप्त हो जाते है । अथवा बसंतऋतु में खिलती हुई आम्रमंजरी के समुदाय से प्रेरित होकर अपनी मीठी बोली में टहुका करती हुई कोकिला का स्वर भी श्रोता जनों को कटु लगने लगता है, अर्थात् आपकी मधुरवाणी रूपी अमृतपान करने के बाद वीणा के स्वर या कोयल की कूक भी सुनने में कानोंको कटु लगना इसमें कोई नवाई नहीं है ।