Book Title: Samyag Darshan Part 02
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-2
सुख के सम्बन्ध में विचार
हे भाई! तुझे सुखी तो होना है न! सुख के स्वरूप के विषय में तूने कभी विचार किया है ? तू अकेला विचार करके देख कि तूने जिन-जिन परविषयों में सुख माना है, उन-उन विषयों में आगे-आगे जाने पर अन्ततः क्या परिणाम आता है ? खाने-पीने इत्यादि किसी भी विषय में अन्ततः तो उकताहट ही आती है और उसे छोड़कर उपयोग दूसरे विषय की ओर जाता है। इस प्रकार यदि विषयों के भोगने में अरुचि ही आ जाती है तो तू समझ ले कि उनमें वास्तव में तेरा सुख था ही नहीं परन्तु तूने मात्र कल्पना से ही सुख माना था। यदि वास्तव में सुख होवे तो उसे भोगते-भोगते कभी किसी को उकताहट आवे ही नहीं। देखो, सिद्ध भगवन्तों को आत्मा का सच्चा सुख है; अतः उन्हें वह सुख भोगते-भोगते अनन्त काल में भी उकताहट नहीं आती।
हे आत्मार्थी ! आत्मा के अतिरिक्त किसी भी बाह्य विषय में सुख नहीं है, यह बात यदि तू जरा-सा विचार करके देखे तो तुझे प्रत्यक्ष अनुभवगम्य होने योग्य है। जैसे कि तूने लड्डू खाने में सुख माना; एक लड्डू खाया... दो खाये, तीन... चार... खाये... अन्ततः ऐसा होता है कि अब बस, अब लड्डू खाने में सुख नहीं लगता। तो समझ ले कि बाद में जिसमें सुख का अभाव भासित हुआ, उसमें पहले से ही सुख का अभाव है; इस प्रकार लड्डू के स्थान पर कोई भी परविषय लेकर विचार करने पर निश्चित होगा कि इन विषयों में सुख नहीं है परन्तु आत्मस्वभाव में ही सुख है। इस स्वभावसुख का निर्णय करके उसकी हाँ कर और विषयों में सुख की बुद्धि छोड़।
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