Book Title: Samyag Darshan Part 02
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-2]
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को मलिन करने में समर्थ नहीं है। विकार जितना ही आत्मा मानना, वह अज्ञान है और विकार से भिन्न शुद्ध आत्मस्वरूप को जानना, वह सम्यग्ज्ञान है। ____ मीठे जल से भरे हुए समुद्र की लहरों में जो मलिनता दिखती है, उतना ही कहीं सम्पूर्ण समुद्र नहीं है। मूलस्वरूप से समुद्र को देखो तो वह समुद्र और उसका पानी एकरूप निर्मल है; लहरों की मलिनता तो बाहर की उपाधि है; उसी प्रकार यह आत्मा सहज चैतन्यरूप आनन्द-समुद्र है। उसमें वर्तमान जो विकारभावरूप मलिन तरंग दिखायी देती है, वह उसके मूलस्वरूप में नहीं है। यदि अकेले आत्मा को मूलस्वरूप से देखो तो उसके द्रव्य में, गुण में और वर्तमान वर्तते भाव में भी विकार नहीं है। आत्मा का मूलस्वरूप शुद्ध है, वह उपादेय है।
जैसे समुद्र का ऐसा स्वभाव है कि मल को अपने में नहीं रहने दे परन्तु उछालकर बाहर फेंक दे; उसी प्रकार आत्मस्वरूप में विकारभावों का प्रवेश नहीं हो सकता। आत्मा, अन्तर्तत्त्व है और विकार, बहिर्तत्त्व है। अन्तर्तत्त्व में बहिर्तत्त्व का प्रवेश नहीं है। आत्मा का स्वभाव, विकार का नाश करने का है। - ऐसा आत्मस्वभाव ही अमृतरूप है, उसकी पहचान के अतिरिक्त दूसरे जितने भाव करे, वे सब जहररूप संसारस्वरूप है।
पुण्य-पाप परिणाम में या उनके फल को भोगने में आनन्द मानना, वह मूढ़ता है। पुण्य-परिणाम करके यह मानना कि मैंने बहुत अच्छे भाव किये, वह अग्नि की ज्वाला भोगने जैसा है। जिस प्रकार कोई पागल मनुष्य, अग्नि से जगमगाते कोयले को
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