Book Title: Samyag Darshan Part 02
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai

View full book text
Previous | Next

Page 177
________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-2] [161 है; सुख का शोधक होकर पदार्थों का स्वरूप जानता है। ____ अहा! अर्थीरूप से जानने की बात कहकर आचार्यदेव ने श्रोता की कितनी धगश बतलायी है ! स्वयं अर्थी होकर-शोधक होकर सुनने जाता है परन्तु ऐसा नहीं है कि जब सहज सुनने का योग बन जाए, तब सुन लेता है और फिर उसकी दरकार नहीं करता। यह शिष्य तो स्वयं अभिलाषी होकर, गरजवान होकर, किसी भी प्रकार मुझे मेरा स्वरूप समझना है - ऐसी अन्तरङ्ग में स्फूरणा करके समझने की गरज से सुनता है। सम्यक्त्व की तैयारीवाले जीव को अपना कार्य साधने का बहुत उत्साह होता है। वह जीव, सम्यक्त्व के लिए उत्साहपूर्वक कैसा प्रयत्न करता है ? इसका वर्णन करते हुए मोक्षमार्गप्रकाशक में कहा है कि 'जीवादि तत्त्वों को जानने के लिए कभी स्वयं ही विचार करता है, कभी शास्त्र पढ़ता है, कभी सुनता है, कभी अभ्यास करता है, कभी प्रश्नोत्तर करता है - इत्यादिरूप प्रवर्तता है। अपना कार्य करने का इसको हर्ष बहुत है; इसलिए अन्तरङ्ग प्रीति से उसका साधन करता है। इस प्रकार साधन करते हुए जब तक - (1) सच्चा तत्त्वश्रद्धान न हो; (2) 'यह इसी प्रकार है' - ऐसी प्रतीतिसहित जीवादितत्त्वों का स्वरूप आपको भासित न हो; __(3) जैसे पर्याय में अहंबुद्धि है, वैसे केवल आत्मा में अहंबुद्धि न आये; (4) हित-अहितरूप अपने भावों को न पहिचाने, - तब Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.

Loading...

Page Navigation
1 ... 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206