Book Title: Samyag Darshan Part 02
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai

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Page 190
________________ www.vitragvani.com 174] [सम्यग्दर्शन : भाग-2 और उनके गुण-पर्यायों में सब समाहित हो जाता है। बन्धमार्ग -मोक्षमार्ग; हित-अहित; सुख-दु:ख; जीव-अजीव; संसार-मोक्ष; धर्म-अधर्म - यह सभी छह द्रव्य के विस्तार में आ जाता है। छह द्रव्यों में जीवास्तिकाय अनन्त हैं, पुद्गलास्तिकाय भी अनन्त हैं, धर्म-अधर्म और आकाश एक-एक हैं और कालद्रव्य असंख्यात हैं। इन द्रव्यों में से प्रत्येक द्रव्य का अस्तित्व अपने -अपने में ही परिपूर्णता पाता है। प्रत्येक जीव अथवा परमाणु अपने-अपने में स्वतन्त्र अस्तित्व से परिपूर्ण है। किसी के अस्तित्व का अंश किसी दूसरे में नहीं है। अपने-अपने गुण-पर्यायोंस्वरूप जितना अस्तित्व है, उतनी ही प्रत्येक द्रव्य की सीमा है, उतना ही उसका कार्यक्षेत्र है। कोई भी द्रव्य अपने अस्तित्व की सीमा से बाहर कुछ भी कार्य नहीं कर सकता और दूसरे के कार्य को अपने अस्तित्व की सीमा में नहीं आने देता - ऐसा ही वस्तु का स्वभाव है, जिसे सर्वज्ञ भगवान अरहन्तदेव ने प्रसिद्ध किया है। हे जीव! अपने हित-अहित का कर्तव्य तुझमें ही है। तुझसे भिन्न पाँच अजीव द्रव्यों में अथवा अन्य जीवों में कहीं तेरा हित -अहित नहीं है; तू स्वयं ही अपने हित-अहितरूप कार्य का कर्ता है, कोई दूसरा तेरे हित-अहित का कर्ता नहीं है; अत: अब तुझे स्वयं अपना अहित कब तक करना है ? अभी तक तो अज्ञान से पर को हित-अहित का कर्ता मानकर तूने अपना अहित ही किया है परन्तु अब तो 'मेरे हित-अहित का कर्ता मैं स्वयं ही हूँ, मेरा अहित मिटकर हित करने की सामर्थ्य मुझमें ही है' - ऐसा समझकर अपना हित करने के लिए तू जागृत हो जा। पर के अस्तित्व से अपने अस्तित्व की अत्यन्त पृथक् ता जानकर, अपने Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.

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