Book Title: Samyag Darshan Part 02
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai

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Page 196
________________ www.vitragvani.com 180] [सम्यग्दर्शन : भाग-2 शान्ति प्राप्त करना चाहता हो, वह जीव वास्तविक आत्मार्थी होकर शान्ति का उपाय खोजता है। आत्मा की शान्ति के लिए गरजवान हुआ जीव, प्रथम तो जगत् में कैसे-कैसे तत्त्व हैं ? - उन्हें जानता है और उनमें स्वयं कौन है? - यह भी जानता है; फिर अपना वास्तविक शुद्धस्वभाव क्या है? - यह निश्चय करके, अन्तरस्वभाव सन्मुख होता है; इस प्रकार वह जीव, शान्ति प्राप्त करता है। देखो, जब अपने अन्तरस्वभाव सन्मुख होकर उसके अतीन्द्रिय शान्ति के अंश का वेदन हुआ, तब उस जीव ने जाना कि अहा! ऐसी शान्तिस्वरूप ही मेरा आत्मा है। यह जो शान्ति का वेदन हुआ, वह मेरे स्वभाव में से ही आयी है और मेरा सम्पूर्ण स्वभाव ऐसी शान्ति से भरपूर है। यह जो राग-द्वेषादि विकारीभाव वेदन में आते हैं, वह वेदन मेरे स्वभाव में से नहीं आया है, वह तो मुझमें आरोपित है। विकार मेरा स्वभावभूत नहीं है, अपितु उपाधिरूप है। इस प्रकार वेदन के स्वाद की भिन्नता से विकारीभाव उसे अपने स्वभाव से स्पष्ट भिन्न ज्ञात होते हैं; इस कारण ज्ञानी को उस क्षण में विकार वर्तता होने पर भी सम्यग्ज्ञानरूप विवेकज्योति भी साथ ही साथ वर्त ही रही है। एक ओर शान्तरस के समुद्र समान शुद्ध स्वभाव को जानता है और दूसरी ओर मलिन जल के डबरे/गड्डे के समान विकार को जानता है। इस प्रकार दोनों को जानता हुआ, विकार की तुच्छता जानकर, उसे तो छोड़ता जाता है और शुद्धस्वभाव की महिमा जानकर, उसमें झुकता जाता है। इस उपाय से अल्प काल में ही समस्त दु:खों का नाश करके, वह जीव परम आनन्दस्वरूप मुक्ति को प्राप्त करता है। [पञ्चास्तिकाय, गाथा 103 पर पूज्य गुरुदेवश्री का प्रवचन] Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.

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