Book Title: Samyag Darshan Part 02
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-2
दूजा नहीं मनरोग' अर्थात् अपना आत्मार्थ साधने के अलावा, जिसके अन्तर में दूसरी कोई मानादिक की शल्य नहीं है, दुनिया अपने को माने या न माने, इसकी उसे दरकार नहीं है। जगत् में दूसरों का सम्बन्ध रहे या न रहे, इसके समक्ष वह देखता भी नहीं है। एकाकी होकर भी अपने आत्मा को ही साधना चाहता है - ऐसा आत्मार्थी जीव, ज्ञानी-सन्तों के चरण की अतिशय भक्तिपूर्वक यह बात झेलता है।
जिसे ऐसी आत्मार्थिता होती है, उसे अन्तर में आत्मा समझानेवाले के प्रति कितना प्रमोद, भक्ति, बहुमान, उल्लास और अर्पणता का भाव होता है ! वह आत्मा समझानेवाले के प्रति विनय से अर्पित हो जाता है... अहो नाथ! आपके लिए मैं क्या-क्या करूँ? इस पामर पर आपने अनन्त उपकार किया... आपके उपकार का बदला मैं किसी प्रकार चुका सकूँ - ऐसा नहीं है। ___ जिस प्रकार किसी को फुफकारता हुआ भयङ्कर सर्प, फन ऊँचा करके डस ले, तब जहर चढ़ने से आकुल-व्याकुल होकर वह जीव तड़पता हो, वहाँ कोई सज्जन गारूड़ी मन्त्र द्वारा उसका जहर उतार दे तो वह जीव उस सत्पुरुष के प्रति कैसा उपकार व्यक्त करेगा? अहा! आपने मेरा जीवन बचाया, दुःख में तड़पते हुए मुझे आपने बचाया, इस प्रकार उपकार मानता है। __इसी प्रकार बाह्य विषयों से और रागादि कषायों से लाभ मानकर, जीव को अनन्तानुबन्धी क्रोध द्वारा फुफकारते हुए मिथ्यात्वरूपी महाफणधर सर्प ने डस लिया है और वह जीव आकुल-व्याकुल होकर खौलते हुए पानी की तरह दुःख में तड़प
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