Book Title: Samyag Darshan Part 02
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-2 ]
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आत्मार्थी जीव का
उत्साह और आत्मलगन
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(२)
आत्मार्थी जीव कैसा होता है, उसकी आत्मलगन कैसी होती है और भगवान के प्रवचन में कथित पाँच अस्तिकायों को जानकर, वह अपने आत्मस्वयप का कैसा निर्णय करता है इसका सुन्दर विवेचन इस प्रवचन में गुरुदेव श्री ने किया है।
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सर्वज्ञ भगवान द्वारा कथित पञ्चास्तिकाय को 'अर्थतः अर्थीरूप से' जानने की बात कहकर आचार्यदेव ने श्रोता की विशेष पात्रता बतलायी है । अपना आत्महित साधने के लिए श्रोता को अन्तर में बहुत उत्साह और धगश है। एक आत्मार्थ साधने के अतिरिक्त अन्य कोई शल्य उसके हृदय में नहीं है । ऐसे आत्मार्थी जीव को ज्ञानी-सन्तों के द्वारा भेदज्ञान का उपदेश प्राप्त होते ही महान् उपकारबुद्धि होती है कि हे नाथ! आपने मुझे अनन्त दुःख में से बाहर निकाला, भवसमुद्र में डूबते हुए मुझे आपने बचाया; संसार में जिसका कोई प्रत्युपकार नहीं है - ऐसा परम उपकार आपने मुझ पर किया है ।
जिस प्रकार क्षुधातुर अथवा तृषातुर जीव, दीनरूप से आहार -पानी माँगता है, इसी प्रकार संसार से थका हुआ और आत्मशान्ति के लिए छटपटाता हुआ जीव, सन्तों के समीप जाकर दीनरूप से अतिविनयपूर्वक कहता है कि हे नाथ ! जीव को शान्ति का उपाय बतलाओ ।
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