Book Title: Samyag Darshan Part 02
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-2]
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आत्मा बाहर की क्रिया तो कर नहीं सकता परन्तु राग-द्वेष होते हैं, उन्हें करने का भी आत्मा का स्वभाव नहीं है। पुरुषाकार ज्ञानमूर्ति आत्मा है, उसे पहचाने तो आत्मा की अभेदभक्ति होती है।
स्फटिक की प्रतिमा के चारों ओर धूल होने पर भी, वह धूल, स्फटिक में घुस नहीं जाती; उसी प्रकार शरीर और कर्मरूपी धूल के मध्य ज्ञानमूर्ति आत्मा रहा होने पर भी, आत्मा में वे कोई प्रवेश नहीं कर गये हैं। जो ऐसे आत्मा को जानकर, अन्तर में उसे देखने
का प्रयत्न करे तो वह दिखता है। स्फटिक की प्रतिमा तो आँख से दिखती है, हाथ से स्पर्शित होती है, इस प्रकार वह इन्द्रियों द्वारा ज्ञात होती है परन्तु आत्मा ज्ञानानन्दमूर्ति है, वह इन्द्रियों द्वारा दिखायी नहीं देता परन्तु अतीन्द्रियज्ञान-दर्शनरूपी चक्षु से वह ज्ञात होता है। शरीर और आत्मा को एक माने तो शरीर से भिन्न आत्मा दिखलायी नहीं देता और धर्म नहीं होता। देखनेवाला तो आत्मा है परन्तु यदि वह इन्द्रियों के द्वारा देखे तो बाहर के जड़-पदार्थ दिखते हैं, आत्मा ज्ञात नहीं होता। अन्तर में ज्ञानचक्षु से अर्थात् भावश्रुत से आत्मा को देखने का प्रयत्न करे तो वह दिखता है। ऐसे आत्मा को देखना और अनुभव करना, अभेदभक्ति है। उससे ही आत्मा में से आवरण का क्षय होकर सिद्ध सुख प्राप्त होता है। इस प्रकार भरत महाराजा अपनी रानियों को समझाते हैं।
स्फटिक तो जड़ है, यह चैतन्यमूर्ति आत्मा उससे अत्यन्त विलक्षण है, वह बाहर की आँख से दिखायी नहीं देगा; उसे ज्ञानचक्षु से देखना पड़ेगा। निर्मल आकाश की तरह आत्मा को ज्ञान की मूर्ति समझकर अन्तर में उसका ध्यान करो। संसार का
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