Book Title: Samyag Darshan Part 02
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-2
पिता के घर में रहती है तो भी लक्ष्य तो ससुराल में ही है; इसी प्रकार जहाँ आत्मस्वभाव का भान हुआ, वहाँ सिद्ध के साथ सगाई हो गयी; अब थोड़े समय अर्थात् दो-चार भव संसार में रहे तो भी धर्मी का लक्ष्य बदल गया है। सिद्ध जैसा स्वभाव वह मैं हूँ और यह मैं नहीं; इस प्रकार अन्तर्दृष्टि बदल गयी है। ___ भाई! यह तो अन्तर की बात अपूर्व है, जिसे अत्यन्त सरल रीति से कहा जा रहा है। दूसरी सब बातें तो सारी जिन्दगी में सुनी होगी, परन्तु यह आत्मा की अपूर्व बात है, जो भाग्यशाली को ही सुनने मिलती है। प्रभु! तुमने अपनी आत्मा की बात कभी प्रीति से सुनी भी नहीं है। ____ भाई! अन्तर में विचार करो कि तुम्हें आत्मा का प्रेम कितना है? और स्त्री-पुत्रादि के प्रति कितना प्रेम है ? अन्दर में जो पुण्य -पाप की वृत्तियाँ होती हैं, वही मैं हूँ - ऐसा मानकर उनकी प्रीति करता है परन्तु आत्मा कौन है? – उसकी समझ नहीं करता। बाहर में 'यह ठीक है और यह ठीक नहीं है' - ऐसा मानकर अटक जाता है परन्तु आत्मा को तो पहचानता नहीं; इस प्रकार परवस्तु में इष्ट-अनिष्ट की कल्पना करके अज्ञानी तो संसार में परिभ्रमण किया करता है और ज्ञानी तो पर से भिन्न आत्मा को पहचानकर निर्मलपर्याय प्रगट करके सिद्ध हो जाता है।
आत्मा अपने स्वभाव से पूर्ण है और पर से रिक्त है। भगवान् आत्मा, ज्ञान से भरपूर और राग-द्वेष से खाली है - ऐसे आत्मा का भान करना, वह सुई में डोरा पिरोने जैसा है। जैसे, डोरा पिरोई हुई सुई गिर जाने पर भी खोती नहीं है; उसी प्रकार जिसने अपनी
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