Book Title: Samyag Darshan Part 02
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-2
वे परमेष्ठी हैं। भगवान श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव महामुनिराज भावलिङ्गी सन्त थे; अपने अन्तर के अनुभव में सिद्ध भगवान जैसे आनन्द का प्रचुर अनुभव वे करते थे; जैसा अनुभव में आया, वैसा ही वस्तुस्वरूप उन्होंने कहा है। स्वभाव के आनन्द की मस्ती में झूलते-झूलते बीच में शुभविकल्प उत्पन्न होने पर इस शास्त्र की रचना हो गयी है। सन्त-मुनि तो शब्द के या राग के भी कर्ता नहीं हैं। चिदानन्दस्वभाव के भानपूर्वक उसकी रमणता में झूलते हुए यह शास्त्र रच गया, इसके वे ज्ञाता हैं। टीकाकार श्री पद्मप्रभमलधारिदेव भी महाभावलिङ्गी सन्त थे।अन्तर में सचिदानन्द परमात्मा का अनुभव करते-करते यह टीका रच गयी है। उसमें इस कलश में भक्ति का स्वरूप कहा है कि जो जीव, विकार से रहित होकर शुद्धरत्नत्रय को निरन्तर भजता है-आराधता है, वही भक्त है। __ भगवान की भक्ति में कषाय की मन्दता का भाव, वह शुभभाव है; उसमें धर्म नहीं, किन्तु पुण्य है। शब्द बोले जाये या हाथ जुड़े -इत्यादि देह की क्रिया है, उससे तो पुण्य भी नहीं है, वह तो जड़ है। देह से भिन्न और राग से पार चिदानन्दस्वभावी आत्मा की श्रद्धा-ज्ञान-रमणता, धर्म है और वही परमभक्ति है।
यहाँ शुद्धरत्नत्रय की 'अतुल भक्ति की बात उठी है। अतुल भक्ति' कहकर व्यवहार का और राग का निषेध बतलाया है। स्वभाव की श्रद्धा-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय की जो भक्ति है, वह ऐसी अतुल है कि किसी के साथ उसकी तुलना नहीं हो सकती। उसे किसी राग की या व्यवहार की उपमा नहीं दी जा सकती; और कहा है कि रत्नत्रय की अतुल भक्ति निरन्तर करता है, अर्थात्
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