Book Title: Samyag Darshan Part 02
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-2]
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रत्नत्रय का भक्त वीर संवत २४७८ के माघ शुक्ल पंचमी के दिन सोनगढ़ में 'श्री गोगीदेवी दिगम्बर जैन श्राविका ब्रह्मचर्याश्रम' का उद्घाटन हुआ। उस समय आश्रम में पूज्य गुरुदेवश्री द्वारा किया गया यह प्रवचन है। इसमें रत्नत्रय की आराधना का अद्भुत भावभीना वर्णन है... जिसके मनन से आत्मार्थी जीवों को रत्नत्रय की आराधना का उत्साह जगता है। जिसके अन्तर में रत्नत्रय प्रगट हुए हों, उसकी दशा कैसी होती है और वह रत्नत्रय का भक्त कैसा होता है, उस सम्बन्धी सुन्दर विवेचन इस प्रवचन में है।
यह नियमसार भागवत् शास्त्र है, इसका परमभक्ति अधिकार पढ़ा जाता है। भक्ति किसे कहना? अपने ज्ञाता-दृष्टा आत्मस्वभाव की निर्विकल्प श्रद्धा, ज्ञान और रमणता, वह सच्ची भक्ति है; देव -शास्त्र-गुरु इत्यादि पर की भक्ति का भाव, शुभराग है, वह धर्म नहीं है; धर्म तो अपने चिदानन्दस्वरूप आत्मा की दृष्टि और स्वसंवेदन करके उसमें लीन होना ही है और उसे ही भगवान, परम भक्ति कहते हैं । ऐसी भक्ति करनेवाला जीव निरन्तर भक्त है ऐसा २२० वें श्लोक में कहते हैं। ___ जो जीव, भव-भय के हरनेवाले इस सम्यक्त्व की, शुद्ध ज्ञान की और चारित्र की भव-छेदक अतुलभक्ति निरन्तर करता है, वह काम-क्रोधादि समस्त दुष्ट पापसमूहों से मुक्त चित्तवाला जीव, श्रावक हो या संयमी हो-निरन्तर भक्त है... भक्त है... । __ भगवान श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव और पद्मप्रभमलधारि मुनिराज महा अध्यात्म की मूर्ति थे, अमृत के कन्द थे; वे अभी स्वर्ग में
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