Book Title: Samyag Darshan Part 02
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-2
देना। मैं जिस एकत्व-विभक्त आत्मा को दर्शाना चाहता हूँ, उसे लक्ष्य में लेकर उसकी हाँ करना। __ श्री आचार्यदेव निर्मानतापूर्वक कहते हैं कि मैं अभी छद्मस्थ हूँ; श्री तीर्थङ्कर भगवान की दिव्यध्वनि में या गणधरदेव की रचना में तो किसी प्रकार की भूल नहीं आती परन्तु मेरी इतनी सामर्थ्य नहीं है, इसलिए कहीं व्याकरण इत्यादि में दोष आ जाना सम्भव है। स्वानुभव में तो मैं नि:शंक हूँ, मेरे स्वानुभव से मैं शुद्धात्मा का जो कथन करूँगा, उसमें तो कहीं चूक पड़ेगी ही नहीं। अहो! आचार्यदेव को जितनी नि:शंकता है, उतनी ही निर्मानता है। इसलिए कहते हैं कि मैं सर्वज्ञ नहीं परन्तु छद्मस्थ हूँ, तथापि मुझे शुद्धात्मा का प्रचुर स्वसंवेदन वर्तता है; इसलिए मैं मेरे स्वानुभव से शुद्धात्मा का जो वर्णन करूँगा, उसमें तो कहीं दोष आयेगा ही नहीं परन्तु व्याकरण की विभक्ति इत्यादि में कदाचित् कोई दोष आ जाये और तेरे ज्ञान के क्षयोपशम में वह ज्ञात हो जाये तो तू उस जानपने पर या दोष पर मुख्यरूप से मत देखना परन्तु उसे गौण करके एकत्वस्वभाव को ही मुख्यरूप से देखना, उस स्वभाव की ओर ही झुकना।
देखो, आचार्य भगवन्त को शुद्धात्मा दर्शाने का विकल्प उत्पन्न हुआ है, वह सामने शिष्य की भी शुद्धात्मा का अनुभव करने की पात्रता का सूचक है। मैं दर्शाता हूँ और तुम उसे प्रमाण करना - ऐसा आचार्यदेव ने कहा तो सामने उस शुद्धात्मा को प्रमाण करनेवाले जीव न हों - ऐसा होता ही नहीं। दर्शाऊँ तो करना प्रमाण' - ऐसा कहने में आचार्यदेव को विश्वास है कि शिष्य ने पूर्व में अनन्त
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