Book Title: Samyag Darshan Part 02
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-2 ]
तत्पश्चात् रानी पूछती है कि आत्मा के अनुभव के लिये कुछ पुण्य करने का कहो न ? क्या भगवान की भक्ति, दान इत्यादि शुभराग करते-करते आत्मा का अनुभव नहीं होगा ? तब भरतजी उत्तर देते हैं कि जिस प्रकार दर्पण के ऊपर चन्दन का लेप करो तो वह भी दर्पण को आवरण का ही कारण है; इसी प्रकार आत्मा में शुभराग से भी आवरण होता है। पहले भेदभक्ति का शुभराग होता है परन्तु उस शुभ तथा अशुभ दोनों से रहित आत्मा का स्वरूप है। उसकी पहचान का निरन्तर प्रयत्न करना चाहिए । भरतजी अपनी स्त्री के प्रति कहते हैं कि हे सुखाकांक्षिणी! भेद भक्ति से पुण्य होता है, और उससे स्वर्गादि पद मिलते हैं, परन्तु आत्मा का सुख उससे नहीं मिलता। रागरहित ज्ञानस्वरूपी आत्मा का श्रद्धाज्ञान करके उसके ध्यान में एकाग्र होना, वह अभेदभक्ति है और वह अभेदभक्ति ही मोक्ष - सुख का कारण है । अभेदभक्ति ही मुक्ति का कारण है और भेद भक्ति, बन्ध का कारण है । यह बात भव्य सज्जन पुरुष उल्लास से स्वीकार करते हैं परन्तु जिसकी होनहार खराब है, ऐसा अभव्य जीव उसे स्वीकार नहीं करता ।
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अहो! यह देह तो जड़ और नाशवान है तथा मैं चैतन्यमूर्ति अविनाशी हूँ–ऐसे आत्मा की पहचान और ध्यान की रुचि भव्य जीवों को ही होती है, अभव्य जीव को आत्मा के ध्यान की रुचि नहीं होती । देखो! संसार में रहे हुए धर्मात्मा पति-पत्नी भी ऐसी धर्मचर्चा बारम्बार करते हैं
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विद्यामणि नाम की स्त्री भक्तिपूर्वक भरतजी से पूछती हैं कि • स्वामीनाथ ! शरीर और राग से भिन्न आत्मस्वभाव का ज्ञान
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