Book Title: Samyag Darshan Part 02
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-2
का मूलकारण है। राग-द्वेषरहित परिपूर्ण ज्ञानस्वरूप परमात्मा का स्वरूप जानकर, उनकी भक्ति, बहुमान करना, वह भेदभक्ति है
और अपने आत्मा को परिपूर्ण निर्मल परमात्मस्वरूप जानकर, उसकी श्रद्धा-ज्ञान करके, उसमें लीन होना, वह अभेदभक्ति है। अभेदभक्ति, वह निश्चयभक्ति है, वह परमार्थ भक्ति है, वह वास्तविक भक्ति है, वह अपने आत्मा की भक्ति है। ___ पहले तो भेदभक्ति होती है। परमात्मा के स्वरूप का विचार करना, वह भेदभक्ति है; ऐसी भेदभक्ति को जानकर, फिर ऐसा ही परमात्मा मैं हूँ, आत्मा में ही परमात्मा होने की सामर्थ्य है' - ऐसे अपने आत्मा को पहचानकर स्थिर हो, उसका नाम परमार्थभक्ति अथवा अभेदभक्ति है। अभेद आत्मा की ओर झुकाव के लक्ष्यपूर्वक भेदभक्ति होवे तो उसे व्यवहार कहा जाता है।
विकार और आवरण का नाश करने के लिए आत्मा में अभेदभक्तिपूर्वक आराधना की आवश्यकता है। अभेदभक्ति से सिद्धपद प्राप्त होता है।
देखो, गृहस्थाश्रम में भी धर्मात्माओं के बीच ऐसी तत्त्वचर्चा चलती है। स्त्री है, तथापि तत्त्व की चर्चा करती है। 'मैं स्त्री हूँ; इसलिए मुझे समझ में नहीं आयेगा' - ऐसी मान्यता नहीं है। पत्नी अपने पति को ऐसे धर्म के प्रश्न पूछती है। मैं स्त्री नहीं परन्तु मैं तो आत्मा हूँ - ऐसा भान है। __ फिर दूसरी रानी पूछती है कि स्वामी ! परमात्मा की भेदभक्ति का तो हमें अभ्यास है परन्तु अन्तर में अभेदभक्ति में चित्त नहीं लगता! व्यवहार का अभ्यास है परन्तु अन्तर में आत्मा, ज्ञानदर्शन
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