Book Title: Samyag Darshan Part 02
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
View full book text
________________
www.vitragvani.com
सम्यग्दर्शन : भाग-2]
शुद्धस्वभाव का आदर करने से ही सम्यग्दर्शन
आत्मा का स्वभाव, वही 'शुद्धभाव' है और वही आदरणीय है; अन्तर्मुख होकर उस शुद्धस्वभाव को मानना, वह सम्यग्दर्शन है। आत्मा का शुद्धस्वभाव, पर से पृथक् और विकार से रहित किस प्रकार है? – वह जानकर उसकी रुचि करना, श्रद्धा करना, वह सम्यग्दर्शन है। स्वभाव क्या और परभाव क्या? – यह जाने बिना स्वभाव की रुचि नहीं होती; पर की महिमा नहीं मिटती और वहाँ तक जीव को धर्म नहीं होता। ___ जीव अपने स्वभाव को भूलकर पर की कैसी भी रुचि करे और कर्तापने की खलबलाहट करे परन्तु इससे परचीज कहीं अपनी नहीं हो जाती, और स्वयं परचीज का कुछ नहीं कर सकता। अपने स्वभाव की पूर्णता की महिमा जानी नहीं और विकार से तथा पर से अपनी महिमा मान रहा है। शुभभाव करे, वहाँ तो मैंने बहुत किया - ऐसा मान लेता है और इच्छानुसार बाहर में अनुकूलता देखे, वहाँ तो मानो मैं इससे भरपूर हूँ, परन्तु उस अज्ञानी को पता नहीं है कि ज्ञान-सुख से भरपूर तो अपना स्वभाव ही है और वही अपने को शरणभूत है; बाहर की कोई वस्तु किञ्चित् भी शरणभूत नहीं है और विकार भी शरणभूत नहीं है। __ जिसे अपने स्वभाव की, विकार से और पर से भिन्नता भासित नहीं होती और विकार में तथा पर में ही एकाकारपना मान रहा है, वह अपने शुद्धभाव को उपादेय नहीं जानता, वह मिथ्यादृष्टि है; और जो जीव अपने शुद्धभाव को विकार से और पर से पृथक् जानकर उपादेय मानता है, वह धर्मात्मा / सम्यग्दृष्टि है।
Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.