Book Title: Samyag Darshan Part 02
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-2
यदि उस शुभराग को आराधना माने तो वह जैन नहीं है; जो जीव स्वभाव के भान द्वारा रागादि को जीतता है, वह जैन है। जिसने राग को ही धर्म माना, वह राग को कैसे जीत सकेगा? मैं ज्ञानस्वरूप हूँ, राग मेरा स्वरूप नहीं है – ऐसा भान करे तो उसके आश्रय से राग को जीत सकेगा। राग को जीतना, यह भी नास्ति से कथन है।' वस्तुतः कोई राग होता है और उसे जीतता है – ऐसा नहीं परन्तु अन्तर में ज्ञानस्वभाव की दृष्टि करके, उसमें स्थिरता करने पर रागादि की उत्पत्ति ही नहीं होती, वहाँ राग को जीता' ऐसा कहा जाता है। जिसे शुद्ध आत्मा का भान नहीं, उसे उसका भजन नहीं और उसे प्रतिमा इत्यादि नहीं होते।
अभी जिसे उपादान-निमित्त की भिन्नता का भी भान नहीं, और निमित्त के कारण से कार्य होता है, कर्म के कारण से विकार होता है – ऐसा मानता है, उसे तो दो द्रव्यों की एकता की तीव्र मिथ्याबुद्धि है। पहले स्व-पर की भिन्नता का भान करके, चिदानन्द परमात्मतत्त्व की श्रद्धा करना, सम्यग्दर्शन है। इस सम्यग्दर्शनरूपी धर्मक्रिया का कर्ता, आत्मा ही है। क्योंकि -
करता परिणामी दरव करमरूप परिणाम। किरिया परजय की फिरनी, वस्तु एक त्रय नाम॥
___ - नाटक समयसार, पृष्ठ ८२ – अर्थात् जो द्रव्य परिणमित होता है, वही कर्ता है और जो परिणाम होता है, वही कर्म है तथा पर्याय का पलटना, वह क्रिया है। यह कर्ता, कर्म और क्रिया तीनों एक ही वस्तु है। आत्मा की सम्यग्दर्शनरूप क्रिया का कर्ता आत्मा ही है; आत्मा से भिन्न कोई
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