Book Title: Samyag Darshan Part 02
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[ सम्यग्दर्शन : भाग - 2
स्वभाव के आश्रय से रत्नत्रय का भाव, वही भक्ति है; राग वास्तव में भक्ति नहीं है । श्रावक को भी स्वयं को त्रिकाली चैतन्य भगवान के आश्रय से सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र की भक्ति होती है; ऐसी रत्नत्रय की भक्ति ही मोक्ष के कारणरूप भक्ति है । पर की भक्ति करने से शुभराग होता है और स्वभाव की भक्ति करने से मुक्ति होती है । स्वभाव की निर्विकल्प श्रद्धा - ज्ञान करके उसमें लीन होने का नाम स्वभाव की भक्ति है और वही रत्नत्रय की आराधना है ।
भक्ति, अर्थात् भजन करना; धर्मी जीव किसका भजन करे ? धर्मी श्रावक और श्रमण अपने आश्रय से शुद्ध रत्नत्रय का भजन करते हैं, वे ही वास्तविक भक्त हैं ।
चतुर्गति संसार में परिभ्रमण के कारणभूत जो तीव्र मिथ्यात्व कर्म की प्रकृति, उससे प्रतिपक्ष निज परमात्मतत्त्व के सम्यक् श्रद्धान -अवबोध-आचरणस्वरूप शुद्ध रत्नत्रय परिणामों का भजन, वह भक्ति है । यहाँ शुद्ध रत्नत्रय बतलाना है; इसलिए अपने परमात्मतत्त्व की श्रद्धा-ज्ञान-रमणता की ही बात ली है; देव - गुरु-शास्त्र की श्रद्धा इत्यादि में तो शुभराग है, इसलिए उसकी बात नहीं ली है।
जो जीव, चैतन्यमूर्ति परमात्मा की भक्ति नहीं करता, उसकी श्रद्धा-ज्ञान-रमणता नहीं करता, वही मिथ्यात्वप्रकृति में जुड़ता हुआ चार गति में परिभ्रमण करता है । यहाँ तो चारों गति में परिभ्रमण का मूलकारण मिथ्यात्व को ही गिना है । सम्यग्दर्शन होने के पश्चात् एक-दो भव हों, उनकी कोई गिनती नहीं है।
स्वभाव को भूलकर, मिथ्यात्व में जुड़ना, चार गति में भ्रमण का मूल है और उस मिथ्यात्वकर्म से विरुद्ध ऐसा आत्मा का
Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.