Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jinchandrasurishekhar, Hemendravijay, Babubhai Savchand
Publisher: Kantilal Manilal Zaveri
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संवेगरंगसाला
खुरप्रहत-दर्दुरस्य | अनशनेन देवत्वप्राप्तिः प्रतिपत्तिद्वारप्रारम्भः च।
॥७१४॥
सुमहग्याऽलंकारेहि, भूसिओ सेणिओ महाराया। भत्तीए जिणवरवीर-वंदणत्यं लहु पयट्टो ॥९२९९॥ तस्स य एगेण तुरंगमेण, सो दद्दरा खुरऽग्गेण । पहओ पहम्मि जंतो, भत्तीए वंदिउ' नाहं
॥९३००॥ तो घायपीडिओ सो, घेत्तणं अणसणं जिणं सम्मं । सुमरंतो मरिऊणं, सोहम्मे देवलोगम्मि ॥९३०१॥ दद्दरवडेंसयम्मि, पवरविमाणम्मि दद्दरंकोत्ति । देवो जातो तत्तो य, सिज्झिही सो विदेहम्मि ॥१३०२॥ लहुसिद्धिओ वि एवं, जइ नंदो निदियं तिरियजोणि । मिच्छत्तसल्लवसओ, पत्तो ता तं चयसु खवग! ॥९३०३॥ ता उज्झियसल्लतिगो, पंचहि समिईहिं तिहि य गुत्तीहिं। सम्मत्ताऽऽइगुणगणं, कयसिवसोख पसाहेसु ॥९३०४॥ इय उवएसामयपाणएण, पल्हाइयम्मि चित्तम्मि । निव्वुइसुवेइ खवगो, पाऊण व पाणियं तिसिओ ॥९३०५॥ इय संसारमहोयहि-तरीए संवेगरंगसालाए। चउमूलद्दाराए, सोग्गइगमपउणपयवीए
॥९३०६॥ आराहणाए पडिदार-नवगनिम्मियसमाहिलाभस्स । तुरियदारष्टारस-पडिदारेहि विरइयम्मि ॥९३०७॥ पढमेऽणुसट्ठिदारे, चरिमं निस्सल्लयापडिदारं। भणियं तब्भणणाओ, समत्तमाणुसद्विदारमिणं ॥९३०८॥ एवमऽणुसद्विसवणे वि, जं विणा विणयणं न कम्माणं । संपज्जइ तमियाणि, भणामि पडिवत्तिपडिदारं ॥९३०९।। बहुवत्तव्वयवित्थर-निम्मियअणुसविसवणपरितुट्ठो। ममतो उत्तिन' व, अप्पयं भवसमुद्दाओ ॥९३१०॥ सिरधरियपाणिपउमो, हरिसुक्करिसुच्छलंतरोमंचो। अंतोविसप्पिसुहसाहि-अंकुरुप्पीलकलिओ व्व ॥९३११॥ खवगमुणी पुणरुत्तं, सम्म अणुसासिओ त्ति जंपतो। भत्तिब्भरनिब्भराए, गिराए भासेज गुरुमेवं ॥९३१२॥
॥७१४॥

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