Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jinchandrasurishekhar, Hemendravijay, Babubhai Savchand
Publisher: Kantilal Manilal Zaveri
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संवेगरंगसाला
।।७५१ ।।
॥९७९९॥
॥९८०० ॥
॥९८०४ ॥
सिक्खाविओ य सुचिरं, समाहिकरणेण चिरमऽणुग्गहिओ । नाणाऽऽईहि गुणेहि, बंधु व्व सुओ व्व मित्तो व्व ॥९७९८ ॥ अहं इट्ठो आसी, निकित्तिमपेमभायणं च परं । इन्हिं च मत्तुणा कह - मञ्वहरिओ निक्किवेणं सो हा ! हा! मुट्ठा मुट्ठत्ति, एवमऽकंदसद्दमाऽऽईओ । जम्हा इह कीरंते, सरीरयं सि ( झ ) जई अचिरा परिगल बलम से, सई पणस्सर विवञ्जए बुद्धी । उप्पजह गहिलत्तं, संभवइ हिययरोगो वि हायंति इंदियाई, छलंति खुद्दा य देवया कहवि । झिजइ समयाऽऽयन्त्रण - सम्मुन्भवो सुहविवेगो वि संजय लहुयत्तं, संभाविज दढ विमूढत्तं । कि बहुणाऽणत्थाणं, सोगो सव्वेसि समवायो ता तं दूरम्मि समुज्झिऊण, निआमगा महामुणिणो । दढमऽप्पमत्तचित्ता, भवठिइमेवं विभावे ति हे जीव ! कीस सोयसि, किं न तुमं मुणसि जो इहं जाओ । तस्साऽवस्संभावी, मच्चू जम्मो पुणो मरणं ) अप्पडियारं च इमं, कहमिहरा भासरासिणो उदए । कूरग्गहस्स वि तहा, विनवणम्मि वि सुरिंदस्स अतुलियबलसारेणं ति - जयपहुपरमेसरेण वीरेण । पडिवालियं न थेवं पि, सिद्धिगमणं जिणवरेणं न य तस्स सुचिरसंचिय - सुकयस्स गुणोलिनिलयभूयस्स । अघोरपंकपम्मुक्क-संजमुजोगजुत्तस्स आराहणमाऽऽराहिय, पंचत्तं पावियस्स खमगस्स । विजइ मणागमेतं पि, नूण संसोयणिजं ति अलमेत्थ पसंगेणं, एवं सम्मं विभाविउ धीरा । तग्गयविहि समग्गं कुव्वंति लहु णिरुव्विग्गा नवरं कालगयस्स हु, सरीरमं तो व्व होज बाहिम्बा । जह अंतो निजवगा, इमेण विहिणा विगि चन्ति ॥ ९८११ ॥
।। ९८०५ ||
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॥९८०८ ॥ ॥९८०९ ॥ 11868011
॥९८०१ ॥
॥९८०२ || 11860311
क्षपकस्य मृत्यौ शोकाकरणं ।
॥७५१॥

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